बुधवार, 23 मई 2012

फुर्सत

फुर्सत कहानी
रविन्द्र आरोही

मेरे पास बीस रुपये का एक नोट और बहुत सारा खुदरा समय था।
साइकिल चलाते हुए, एक खाली जगह देख कर मैने शर्ट की बाईं जेब दाहिने हाथ से टटोली। नोट हिफाजत से था। खाली जगह पर नीम का पेड़ था। नीम का पेड़ वर्षों से एक ऊब के साथ उसी जगह खड़ा था। पेड़ इतना भरा-पूरा था कि साँझ वहां देर तक नहीं ठहरती थी। उस रास्ते से गुजरने वाले अक्सर वहां तक आ कर थक जाते। दो थके लोग अलग-अलग, पेड़ के पास एक साथ बैठे थे। मौसम की बात करना उनमे से किसी को नहीं आती थी। एक ने मुझे अपनी जेब टटोलते देखा और फिर थके मन से उसने अपनी घड़ी देखी।
साइकिल पर पॉकेटमारी का भय नहीं होता। नीम के पेड़ के आगे एक खाली मैदान था। खाली मैदान में हवा तेज-तेज चलती थी। तेज तेज साइकिल चलाने से हवा में शर्ट फड़फड़ाता था। नोट उड़ जाने का भय था।
मैंने कभी दूध के कुल्ले नहीं किये। हवा मे नोट उड़ते नही देखा। बस, रेलगाड़ी या ऐसे भी कहीं, कभी मेरी पॉकेटमारी नहीं हुई। नई फिल्मों के शुरुआती दौर में, जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे, बसों में एफ.एम. का जमाना नहीं था, बसों के रंगीला ड्राइवर टेप में “सात समुनदर पार मैं तेरे पीछे-पीछे आ गई” बजाते थे, तब के सिझते दिनों में पॉकेटमारी खुब होती थी। हमेशा से पॉकेटमार मुझे एक छोटा जादूगर लगते- बावजूद इसके कि मैने कभी पॉकेटमार नहीं देखे। तब तक छोटा जादूगर भी नहीं देखा था- पर दोनों की कल्पना एक सी लगती थी।
डर का रंग हमेशा से दुख जितना काला नहीं था- इन्हें हम हर कहीं अलग-अलग पहचान सकते थे।
मैं जिस भाड़े के मकान में रहता था। वह एक कमरा और सामने बरामदा वाला मकान था। बरामदे में ही खाना बनाना, बर्तन माजना और नहाना होता था। घर के आगे कोई पेड़ नही था इसलिए वह जगह सूनी-सूनी लगती थी। चार अलग अलग किरायेदारों के बीच का एक कॉमन लेट्रीनरूम मेरे घर के पिछवाड़े था। घर की दोनों खिड़कियां उसी तरफ खुलतीं यदि खुलतीं तो रविवार को मेस्तर आता था। बुधवार तक पूरा घर गंधाने लगता। बाहर से आने वालों को यह गंध और खारी लगती। शनिवार तक यह गंध इतनी बढ़ जाती कि उस रात मरने, खोने, डूबने, पीटने, और रेलगाड़ी के छूटने और उसके पीछे पटरियों पर बेतहासा भागने जैसे बूरे-बूरे सपने आते। खिड़कियां हमेशा बंद रहतीं सो पूरे घर मे अंधेरा और नोना लग गया था। अंधेरा कमरे में पीलापन लिए हुए था। चीजें इतनी ठंढी कि छुट्टी के दिन, दिन के अंधेरे मे सोये-सोये लगता कि मेरे आंत का ऑपरेशन हुआ है और अंदर से मवाद रीस रहा है। जी मितलाने लगता और मुंह से धीरे धीरे कराह आने लगती। मेरे बिस्तर के पैताने एक हरे रंग की टीन की पेटी थी और उसके ऊपर आठ किताबें थीं। सोये-सोये कराहने वाली आदत में ऊर्जा का इतना क्षय होता कि हर कहीं विस्मृतियों का जाला- सा बुनता गया। ठंढी किताबें कई बार पढ़ी जाने के बाद भी कई बार पढ़े जाने के लिए कोरी रहीं। किताबों मे लिखा सूरज एक पीलापन लिए उतना ही ठंढा और अंधेरा होता कि उस पर उँगली रखकर पढ़ा जा सके। थर्मामीटर के बुखार की तरह दिन के अंधेरे पर रात का अंधेरा किस तरह चढ़ता पता नहीं चलता था।
नौकरी के शुरुआती दिनों में इतवार तारीख वाले कैलेण्डर पर अलग से लाल रंग का चमकता था और हम उस लाल कोठे में मछली-भात लिखकर भर दुपहरी दरबार सिनेमा में सोये रहते।
आज वृहस्पतिवार था। अचानक की छुट्टी में कई सारे छोटे-छोटे फुर्सताह काम उग आए थे। घर में रखा टीन का बक्सा नोना लगकर झड़ गया था। एक नया बक्सा लेना था। चार किरायेदारों की एक सार्वजनिक नाली मेरे बरामदे के नीचे से गुजरती थी। मकान मालिक ने बरामदे का फर्श फोड़ कर, एक छोटा छेद नाली में मिला दिया था। बर्तन माजने और नहाने का पानी उसी रास्ते नाली में गिरता। उसी रास्ते नाली के बड़े-बड़े चूहे अंधेरे घर में तशरीफ रखते। बाद के दिनों में मैंने उस छेद में एक टूटी चायछन्नी लगा रखी थी। आज साइकिल निकालते घड़ी टूटी चायछन्नी नाली में गिर गई।
मुर्गीहट्टा बाज़ार में अच्छी-खासी भीड़ थी। सुबह के नौ बजे थे। इतवार को यह भीड़ और बढ़ जाती। बस के किनारे से साइकिल निकालते घड़ी, साइकिल स्कूटर से भीड़ते-भीड़ते बची। पीछे से एक ने मेरी साइकिल थाम ली, नहीं तो एक दुकान के आगे रखे पेप्सी के बक्से पर साइकिल गिर जाती – आठ-सात खाली बोतलें फूट जातीं। दुकानदार ने “हाँ-हाँ” कर मुझे डाँटा कि उसके डाँटने से मैं नहीं गिरा। पीछे से साइकिल पकड़ने वाला नारायण था। मैंने सम्भल कर उसे पहचाना। वह मुझे पीछे से ही पहचान लिया था बावजूद इसके कि मैं रोज-रोज एक ही शर्ट नहीं पहनता। स्कूटर वाले से नारायण ने ही मेरी तरफ से माफी मांगी थी। नारायण अपनी एक छोटी-सी बेटी के साथ बाजार आया था।
मैं नारायण के साथ-साथ साइकिल डगराते हुए बाज़ार पार करने लगा। वह अपनी सब्जी की झोली मेरी साइकिल के कैरियर पर रख कर साथ साथ चल रहा था। उसकी बेटी भी कैरियर पर लटकती सी साथ-साथ चल रही थी। पता नहीं नारायण ने बेटी का क्या नाम रखा हो- मैं मेघा रखता। मेरे मामा की लड़की इतनी ही काली थी और उसका नाम भी मेघा था।
“आज दफ्तर नहीं गये”, हड़ताली मोड़ तक आते आते, नारायण ने हँसते हुए पूछा था । कई बार हम चाहकर भी पूरी तरह नहीं रो पाते। खुल कर हँसी की तरह खुलकर रोना हो पाता तो आँसू आज भी मोतियों- सा चमकते।
“नहीं, मेरे दफ्तर के एक कलिग, कालिंदी बाबू कल मर गए इसीलिए आज छुट्टी पड़ गई।”
“बड़े बाबू थे?” बहुत पहले फोटो खिचाते घड़ी जितनी मुस्कान अनिवार्य होती थी, उतना ही अनिवार्य दुख चेहरे पर लाकर नारायण ने पूछा- बड़े बाबू थे?
“नहीं, प्रुफरिडर थे। उम्र में बड़े बाबू से बड़े थे”, मैने एक हाथ से साइकिल का हैण्डेल थामे, दूसरे से जेब की तलाशी ली- नोट यथावत था।
“सीने में चोट आ गई क्या?”, नारायण ने धीरे से पूछा। छोटी सी बेटी अब भी कैरियर पर झूल रही थी।
“दाहिने पैर के अंगूठे में चोट है”- मैंने कहा।
“स्कूटर से लगी या बस से” नारायण झांक कर दाहिने पैर का अंगूठा देख रहा था।
“पहले का चोट था अभी वहाँ झूठा पड़ गया सो चिलकने लगा” झूठ-मूठ के चोटिल अंगूठे वाले पैर से झूठ-मूठ लंगड़ाते हुए मैंने बोला।
बाज़ार पार कर बिरती के मैदान के रास्ते हमलोग निकलने लगे। मैदान के बीचो-बीच पैदल चलने से बनी पैदल चलने की लीक थी। मैदान पूरा समतल था फिर भी लोग उसी लीक पर रेलगाड़ी की तरह चलते थे। एक ने घण्टी बजाई, हमलोग लीक पर थोड़ा किनारे हो गये। वह आगे बढ़ गया। बीच मैदान में लीक पर विकेट गाड़कर बच्चे क्रिकेट खेलते थे। आज वृहस्पतिवार था। मैदान के सारे बच्चे स्कूल में थे। इतवार को स्कूल के सारे बच्चे मैदान में होते थे। वृहस्पतिवार को नारायण का सैलून बंद रहता था।
“आप किधर जायेंगे?” बीच मैदान में, विकेट गाड़ने वाली जगह पर खड़े होकर नारायण ने टॉस उछालने की तरह पूछा था- हेड या टेल?
“बैटिंग फस्ट अर्थात बड़े बाबू के घर”
मैदान पार करते ही “लौंग ऑन” की दिशा में नारायण का घर था। बड़े बाबू लौंग ऑफ की तरफ रहते थे।
मुझे याद नहीं था, मै अब भी लंगड़ाते हुए चल रहा था। नारायण ने पीछे से चिल्लाकर कहा , चढ़ कर चले जाइये। मुझे याद नहीं आता तो पैदल ही बड़े बाबू के घर तक चला जाता। वे मेरा लंगड़ाना नहीं देखते उन्हें लगता कि साइकिल पंचर हुई है।
बड़े बाबू अभी-अभी बाज़ार से पोई का साग लेकर लौटे थे।
“मैंने तुम्हें बाज़ार में देखा था”- बड़े बाबू ने खुश होकर कहा- “मुझे लगा कि तुम चूहे मारने की दवा लेने जा रहे थे।”
मुझे खुशी हुई कि मै बाजार में सिगरेट नहीं पी रहा था। बहुत पहले जब भी बाबूजी घर आकर मां से कहते कि मैने बाज़ार में चुन्नू को देखा, तब मै बाज़ार मे सिगरेट पी रहा होता था।
“मै आपसे ही मिलने बाज़ार होकर आ रहा था। आपने बाज़ार में मुझे टोका नहीं”
“मुझे तुमसे कोई काम नहीं था, इसलिए नहीं टोका। पोई का साग खाते हो?”
“बड़े बाबू, अब उस घर में रहना नहीं हो पाता” मेरे मुँह से वैसी ही कराह एक बार आई।
बड़े बाबू ने बड़ी इत्मीनान से कहा कि कल परसों तक कालिंदी बाबू का हिसाब हो जाएगा। अगले सप्ताह तक उनका परिवार कम्पनी का घर छोड़ कर गांव चला जाएगा। वे लोग उनका क्रिया-कर्म गांव पर ही करेंगे। तुम उसी घर में आ जाना।
बहुत दिनों बाद, बहुत पहले के दिनों की तरह खुश था। बाज़ार आकर, आठ रुपये में भर पेट अण्डा-भात खाया। दरबार का टिकट दस का था। इण्टरवल में मैंने दो रुपये का नेवी-कट पीया और गई सांझ घर लौटा। साइकिल तेज-तेज भाग रही थी। शर्ट हवा में फड़फड़ा रहा था।