सोमवार, 27 जून 2011

एक तोते का जन्म पहली बार एक कहानी में हुआ था



शीर्षक एक
एक तोते का जन्म पहली बार एक कहानी में हुआ था, दुनिया ने पहली
कहानी एक तोते के मुँह सुनी थी

शीर्षक दो
खाली दिनों में लोकबाबू की जंगल-गाथा



इधर के दिनों में यह कहानी कई तरह से शुरू हो सकती थी, पर जिस समय इस कहानी की महज एक ही शुरुआत थी तब खाली, सूनी, लम्बी पगडंडियों पर बेढब दोपहरें खाली कनस्तरों-सी बजती थी। तब के दिनों में पेड़ों stसे पत्ते और फूल बहुत झरते थे-फल पक कर चू जाते। उन्हीं दिनों लोकबाबू को फूल बहुत अच्छे लगते और उन्हें फूलों को देख दया आती थी। दुनिया में और भी कई चीजें थीं जो लोकबाबू को भाती थी और उन तमाम भाने वाली चीजों के प्रति उनके मन में दया जैसी भाव थी-करुणा जैसी भी।
होता यूँ था कि कभी-कभार चीजें अच्छी लगनी बन्द हो जाती पर उसके हिस्से की दया और करुणा लोकबाबू के अन्दर ज्यों कि त्यों बनी रहती।
हमारी दुनियाँ में जब बहुत कम कथायें थीं। उस समय भी लोकबाबू के पास, हमारे लिये, बेतरतिबी से गढ़ी हुई अनेक कथायें थीं। और तब लोकबाबू हमारे बीच एक खाली और फुरसताह दिन की तरह थे।
जाड़े की रातों में रजाई में घुस कर हम जवान हो रहे थे। कहने की गरज ये कि बीस पैसे रोज के भाड़े पर नागराज और चाचा चौधरी का कॉमिक्स पढ़ना हमने छोड़ दिया था। हम भूतनाथ महाविद्यालय जाने लगे थे। वहाँ जिन चार चीजों से हमारा साबका पड़ा, उनका महत्व बस इतना कि हमारे गाँव के बहुत बाहर से जो एक नहर गुजरती थी, कहते हैं, नेपाल से आती थी। उस पर एक पुराना पुल था। उस पर से चार चक्के की गाड़ियाँ बड़ी सावधानी से गुजरती थीं। थोड़ी भी दायें-बायें हो तो पुल की दीवार से रगड़ जाये। उस पुल से हर आदमी एक दहशत में गुजरता था। लोकबाबू जब पुल से गुजरते, बस की खिड़की से नहर के पानी को प्रणाम करते, इस तरह देखा-देखी सब करते। महिलायें ज्यादा करतीं। वह पुल ऐसा नहीं था जिस पर बैठ कर किसी लड़की के साथ प्रेम किया जाय या किसी बच्चे से कहा जाय- ओ देखो पुल! मतलब कि उस पुल का एक पुल होने के अलावा कोई अलग से मतलब नहीं था। हमारी जिन्दगी में आई वे चार चीजें भी बस उसी पुल की तरह, अपने मतलब के साथ थीं।
साइकिल, सिगरेट, जैक्सन और गुलशन नन्दा
चुँकि महाविद्यालय गाँव से चार किलोमीटर दूर था सो साइकिल थी। गाँव की तरह साइकिल पुरानी थी। चाचा बातों-बातों में कहते कि साइकिल का बस फ्रेम ही पुराना है, बाकी सब नया ही समझो। फिर भी साइकिल चलती थी तो अक्सर आवाज होती थी। गाँव के चलने में अक्सर आवाज नहीं होती। गाँव में कभी-कभार चोरियाँ हो जाती सो कभी-कभार आवाज भी होती थी। रात के समय चाचा साइकिल को सिक्कड़ से बाँध कर आँगन में रखते थे। गाँव में साइकिल की चोरी अक्सर होती।
गाँव में ट्रैक्टर चलाने सिर्फ तीन को आता। बहुतों को साइकिल चलाने नहीं आती और बहुतों को पता भी नहीं चलता था कि बहुतों को साइकिल चलाने नहीं आती। गाँव में प्रेम प्रसंग ऐसे ही फलते-फूलते थे। लड़के नैनीताल भाग जाते, लड़कियाँ पास के रेलवे स्टेशन पर पकड़ी जातीं।
गाँव में गरमी के सीजन में शादियाँ होतीं, लोग जाड़े में बूढ़े हो कर मरने लगते। मरने वाले के अनुपात पर जाड़े की डिग्री मापी जाती। जाड़े में हुई शादियाँ, लोगों को दिनो-दिन तक याद रहती। कलर्क बाबू जब मर गये और गाँव के लोग नहर के बाँध पर उन्हें जलाने ले गये- वह गरमी का कोई महीना था। हम सब सरकारी शीशम के नीचे कलर्क बाबू के जल्दी जलने का इन्तजार कर रहे थे। गरमी के महीने में हवा चौतरफा चलती थी सो आग की लपटें और तेज हो जाती थीं। दीक्षित जी कहते- सोमवारी एकादशी में मरना अच्छा होता है। बहुत देर बाद बहुत दूर बैठे प्राइमरी वाले गणेश मास्टर ने कहा कि कलर्क बाबू बढ़िया आदमी थे और उससे भी बहुत बाद में कहा कि उन्हें साइकिल चलाने नहीं आती थी। गणेश मास्टर की बातों पर न जाने क्यों हमे सहज विश्वास नहीं हुआ। किसी के चिता पर कोई झूठ कैसे बोल सकता था भला, और वो भी मरने वाले के बारे में। hहम याद नही कर पा रहे थे कि कलर्क बाबू को साइकिल चलाने नहीं आती थी। सहज विश्वास भी नहीं होता था। कई बार हमारे मस्तिष्क में, कलर्क बाबू की फरहर जिन्दगी की रिल, साइकिल पर बैठे हुए घूमता था। गणेश मास्टर पहले बताये होते तो कलर्क बाबू को पैदल चलते देख हम सहज विश्वास कर लेते- अब मरे हुए के नाम पर कोई सट्टा कैसे खेले। आदमी अक्सर मरे हुए के नाम पर व्यापार चलाता है। हमने गणेश मास्टर को एक संदेह की दृष्टि से देखा। गणेश मास्टर एक सरकार की तरह झेप गए।
बहुत बाद यह पता चलता कि कलर्क बाबू की साइकिल नहीं चलाने वाली बात, कलर्क बाबू को किसी भी तरह कथा में जिन्दा रखने की षड़यंत्र मात्र थी। होता यूँ था कि वहाँ की हर कथा में कलर्क बाबू बरबस चले आते और सुनने वालों को बहुत अंत में यह गुप्त बात पता चलती कि कलर्क बाबू को साइकिल चलाने नहीं आती थी।
कलर्क बाबू का नाम लोकबाबू नहीं था। गोपी चन्द्र था। कुछ लोग उन्हें गोपचन, गोपचन भी कहते थे। लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था। लोग उन्हे लोकबाबू, लोकबाबू कहते। चुकि किसी भी कथा में कलर्क बाबू के बरबस आ जाने से अक्सर सुनने वाले को भ्रम होता था, सो अक्सर रुक कर मूल कथा से कलर्क बाबू वाली कथा को बिलगाना पड़ता था कि ये ये थे और ये ये- अर्थात कलर्क बाबू कलर्क बाबू थे और लोकबाबू लोकबाबू ।
...हां तो हम थे कि लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था, लोग उन्हें लोकबाबू लोकबाबू कहते थे।
जहाँ दुनिया एक माइक्रो-चीप में समाई जाती थी। लोग चाँद पर रहने, घर बसाने, होटल-वीयरवार खोलने, सहवास करने, हनीमून मनाने, बच्चे पैदा करने की बात सोच रहे थे। वहीं इस ओवरटेक वाली टुच्ची दुनिया में आलोक बाबू के ’आ’ स्वर का लोप कब, कहाँ, कैसे हुआ, कौन सोचे भला। इतना सोचने का फालतू समय इस अजीब सी बनती जा रही दुनिया में किसी के पास न था- बात बस इतनी सी थी कि आलोक बाबू लोकबाबू बन गये बस!
लोकबाबू ने अपने जीवन में न जाने कितनी नौकरियाँ छोड़ी और न जाने कितने मुहावरे गढ़े। मैं यहाँ छुटी हुई नौकरियों और गढ़े गये मुहावरों की बात नहीं करूंगा।
बात, हर बार छुटे रह जाते लोकबाबू की...
गाँव से सोलह किलोमीटर पश्चिम ’भोरे’ से दो बसें, गाँव के पंद्रह किलोमीटर पूरब मीरगंज टाउन को जाती थीं। उस रुट में सिर्फ दो ही बसें चलती थी- अप डाउन। सुबह नौ से शाम पाँच तक। जो बस नौ बजे भोरे से छुटती वह पौने दस, दस तक गाँव का चौराहा शंकर मोड़ पर पहुँचती। लोकबाबू की वह सवारी थी। लोकबाबू उसके असवारी थे। बस रोज छुटते छुटते रह जाती। लोकबाबू रोज छुटते छुटते रह जाते। महीने में एक-आध बार ऐसा भी होता कि लोकबाबू रहते रहते छुट भी जाते।
जब लोकबाबू रहते रह्ते छुट गए होते, चौराहे पर खड़े किसी सवारी की राह तकते और अंततः हमारी साइकिल के पीछे कैरियर पर असवार हो जाते। तब छुटे रह गये लोकबाबू तीन लोगों को गालियाँ देते मन ही मन- पत्नी, भैंस और एक खास मुहावरा बनाने वाले आदिम आदमी को। पत्नी का सम्बन्ध गालियों से इस बावत जुड़ता कि उसने लोकबाबू का अण्डर वियर सुखा कर न जाने कहाँ रखा था कि ढूढ़ते-ढूढ़ते देर हुई। लोकबाबू जब गरम होते, पत्नी धीरे से कहती, चिल्लाइये मत स्थिरे रखा है, मिल जायेगा। भैंस की हाल ये कि लोक बाबू कपड़ा पहन कर तैयार होते कि कोई बाहर से चिल्लाता- ऐ लोकबाबू! भैंस पगहा तूड़ा कर भर गाँव चौकड़ी भर रही है। और लोकबाबू दौड़ पड़ते।
लोकबाबू जब पत्नी को गाली देते, पत्नी को भैंस बोलते। भैंस को देते तब भैंस को साली। पर दोनो सूरतों में वह मुहावरे वाला आदिम आदमी कॉमन होता, जिसने कहा होगा कि ’बस, ट्रेन और लड़की के पीछे मत भागो एक जाएगी तो दूसरी आएगी।’ साले को क्या पता कि दूसरी के आने तक नौकरी चली जायेगी- लोक बाबू कहते।
इस तरह एक रोज रोज-रोज के छुटे लोकबाबू ने हमारी साइकिल के कैरियर पर असवार होकर हमारा हाल-चाल पूछा और हमे एक कवि की तीन पंक्तियाँ सुनाई। कवि का नाम धुमिल था और कविता में वैश्या और हिजड़े टाईप के कुछ शब्द थे।
ऐसा बहुत सम्भव है कि अब तक की इस कहानी से आपका बहुत सम्बन्ध नहीं बैठता हो, ठीक उसी तरह जैसे कि कहानी के नाम पर ऊपर किए गए बकवास से शुरू हो रही मूल कहानी का बहुत सम्बन्ध नहीं है। पाठक चाहें तो ऊपरी पैराग्राफ को छोड़ भी सकते हैं। समय बहुत नहीं हो तो कहानी यहाँ से भी शुरू हो सकती है।
समय को ले कर एक फिलॉस्फी मैने लोकबाबू से मारी थी- आप समझ नहीं रहे लोकबाबू, कमप्यूटर का जमाना है, आधा ’न’, आधा ’म’ लिखने में दिक्कत होती है। कैरियर पर बैठै लोकबाबू थोड़े व्यवस्थित हुए, हैण्डल चकमका गई। मैने फिर कहा, इसीलिए सब जगह बिन्दी लगाई जाती है।
मेरा अनुमान था कि बातों में ’कमप्यूटर’ शब्द आते ही लोकबाबू थोड़ा हिल गये होंगे।
-चुस्त पैंट पहनने में दिक्कत नहीं होती? आधा ’म’, आधा ’न’ लिखने में ज्यादा दिक्कत होती है? गुजराती, मराठी, तमिल, क्न्नड़, नेपाली वाले कमप्यूटर नहीं चलाते, सिर्फ हिन्दी वाले ही चलाते हैं? यही सब करके तो आप लोग भाषा और व्याकरण का (बीऽऽऽऽप) मार दिये। ई सब कौन (बीऽऽऽऽप) पढ़ाता है आपको?
लगा नहीं कि लोक बाबू मुझे डाँट रहे हैं। यूँ लगा कि हम किसी ईरानी फिल्म की समीक्षा सुन रहे हैं। लोकबाबू जोर जोर से कुछ समझा रहे थे, मैं तेज तेज पैडेल मारे जा रहा था।
यह एक दृश्य था। जबकि दृश्य कुछ इस तरह होना था कि कहानी में मुझे, सिगरेट पीते हुए एक हीरो की तरह एंट्री मारनी थी, पर ऐसा नहीं हुआ। मैने कवितायें लिखनी शुरू कर दी। लाल छींटदार, ढीला-ढाला शर्ट पहनकर लहराते हुए साइकिल से कॉलेज जाना था, पर ऐसा नहीं हुआ। यह सब मेरे दोस्तों के साथ हुआ। और मेरे हिस्से, साइकिल के कैरियर पर हर रोज के छुटे लोकबाबू असवार हुए। और इस तरह साइकिल के कैरियर से ही मैंने दुनिया का आधा साहित्य पढ़ लिया।
दुनिया की हर चीज पर लोकबाबू के चश्मे का पावर सही-सही फिट बैठता था। कैरियर पर बैठे लोकबाबू कभी कभी ऐसी बातें बतलाते जो युवा पीढ़ी से लेकर घरेलू औरतों तक के काम आ सकते थे कि ’अखबार में लिखे राशिफल पर विश्चास मत करो, वह हम अपने मन से बना-बना कर लिखते हैं। कोशिस करते हैं कि सब का अच्छा-अच्छा लिखें और लिखते भी हैं। सिर्फ तुला राशि का गड़बड़ लिखते हैं।’ पत्नी तुला राशि की थी। एक बार लिखा था, ’पति की सेवा करो, घर में धन की बारिश होगी- इस तरह।
-लोकबाबू मेरा क्या है?
-कन्या राशि है। राशिफल अखबार में पढ़ लेना। साइकिल दो, मैं लेट हो रहा हूँ।
लोक बाबू जितने सुलझे हुए आदमी थे, उनका काम उतना ही उलझाऊ था- लाँगझारु। लोकबाबू ’दुनिया-जगत’ नामक एक छ्ह पेजिया अखबार में प्रूफरिडर थे। उनके पास तीन सीट कपड़े थे। दो में ड्यूटी करते, तीसरे में पहुनाई जाते। जाड़े के लिये एक जोड़ी जूता-मोजा, एक फुल स्वेटर, एक बन्दर छाप टोपी और एक ऊनी आसमानी चद्दर था। गरमी के लिये, जाड़ा वाला कपड़ा हटाकर जो बचता, वही था। बरसात में एक छाता और एक जोड़ी प्लास्टिक का जूता अलग से जुड़ता था। और एक स्याही बोकरती सवा रुपये की फाउण्टेन कलम बरहोमासा थी। तीनों कुर्ते की जेब पर उसके निशान थे। जब भी लोकबाबू से बात करते समय कोई उनके कुर्ते की जेब पर नज़रें गड़ता, लोकबाबू देखने वाले के चेहरे का गणित पढ़ते हुए मन्द-मन्द मुस्कुराते, मुस्कुराहट में अगहनी बाजरे सा एक लालछाँऊ भाव फुटता कि हम पढ़े-लिखे आदमी हैं, चोर नहीं हैं- लोकबाबू के साथ ऐसा अक्सर होता था।
लोकबाबू का घर गाँव के पश्चिमी सीमाने से थोड़ा और किनारे पर था। घर के किनारे एक नीम का पेड़ था। सुबह से नीम की छाँव दूसरे गाँव के सीमाने में गिरता था। तिजहरिया को नीम अपनी छाँव को समेट कर इस गाँव में आ बसता। लोकबाबू का खानदान पिछले तीन पीढ़ियों से इस गाँव में आकर नवरसा पर बसा था। लोकबाबू आज भी गाँव में एक पेईंग-गेस्ट की तरह रहते थे। साफ-सुथरा, चुप-चाप कि कुछ भी बोलें तो मात्रा गड़बड़ हो जाए कि कब आकर एडिटर डाँट दे कि ’पुनर्प्रकाशन’ होता है कि ’पुर्नप्रकाशन’? लोकबाबू हर जगह सतर्क, चौकस और चुप रहते। नीम का पेड़, बरसों से, चुप-चाप, भर गाँव को दातुन बाँटता था। जैसे आम का पेड़ आम बाँटता है।
हमारे आवारा दिनों की जितनी भी बड़ी और बेवकूफ घटनायें थीं चुपके से लोकबाबू के चश्मे के नीचे से होकर गुजरी थीं। उन्होंने हर घटना का प्रूफ देखा था। हर घटना का तारकुन ’कु’ बारझुन ’कू’ ठीक किया था।
मृत्यु और चश्मे की बड़ी सरपट फिलॉस्फी है। दोनों कब चढ़नी शुरू होती है- पता नहीं चलता।
अब लोकबाबू बस के पीछे नहीं भागते थे। शान के साथ चौराहे तक आते, बस मिली तो मिली नहीं तो साइकिल से।
साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे। चेनकवर चेन से रगड़ खा रही थी और लोकबाबू के पीछे एक आवाज छुटती चली जा रही थी- तकुन ’कु’, बरझुन ’कू’। मैने चिल्लाकर कहा- लोकबाबू, मेरा ठीक-ठीक लिखिएगा, कन्या राशि।
लोकबाबू पीछे मुड़कर चिल्ला कर बोले- ’शनि का साढ़ेसाती है, नीलम धारण करो, बाकी मैं देख लूंगा।’ और साइकिल सड़क से उतर गई।
और यह उन्हीं दिनों की घटना है, जब इतिहास में मुझे सौ में तेइस नम्बर मिले थे और मैंने एक कहानीकार बनने की बात सोची थी। तब मेरे पास कुल अधूरी और सिर्फ अधूरी मिलाकर सात एकतरफा प्रेम कहानियाँ थीं।
दिन तालाब के किनारे चुपचाप खड़ा रहता। शाम ढले लड़कियाँ कोरस में हँसती थीं। सब तरफ अच्छा-अच्छा घटने के आसार बने रहते थे कि लोकबाबू एक बढ़िया आदमी थे कि उनके अखबार में कहानियाँ भी छपती थी और लोकबाबू ने उन तमाम कहानियों के हीरोइनों के ’अस्तन’ को ’स्तन’ किया था।
लोकबाबू देर शाम साइकिल चलाते हुए लौटे थे। ऑफिस से महाविद्यालय तक लौटे थे। पूरब से पश्चिम में लौटे थे। दोपहर से शाम में लौटे थे। लौटे तो साथ-साथ कैरियर पर बैठी एक उदासी भी लौटी थी। कह रहे थे कि मालिक कह रहा है, अखबार घाटे में जा रहा है। उन्होंने यह भी बतलाया कि उनकी उम्र सैंतालीस की है। उन्हें उदास देखकर मैंने आधी दर्जन अधूरी प्रेम कहानी वाली बात छुपा ली।
महाविद्यालय से डेढ़ किलोमीटर दूर बड़कागाँव में हम लोगों ने चाय पी। लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय पीते। उन्हे कोई बीमारी नहीं थी। चाय दुकान पर खड़ेs लोकबाबू जगलाल को बुला कर धीरे से कहते, बिना चीनी वाली एक और चीनी वाली एक। जगलाल बहुत ही लाचारी से लोकबाबू को देखता, उसकी आँखों में लोकबाबू शरीफ-शरीफ बीमार लगते। वह लोकबाबू को ताक कर थोड़ा मुस्कुरा देता। लोकबाबू थोड़ा बीमार हो जाते। वह मुस्कुरा कर लोकबाबू की चाय में दो दाना चीनी मिला देता। वह इस फिराक में अक्सर रहता कि जिस दिन लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय कहना भूल जाएंगे, उस दिन उन्हें वह चीनी वाली- कम चीनी वाली- चाय पिला देगा। लोकबाबू को बिना चीनी वाली चाय देने में जगलाल को थोड़ा दोष सा कुछ लगता था और उसका मन फीका-फीका हो जाता।जगलाल हमेशा इस फिराक में रहता कि किसी दिन लोकबाबू के जेब में पैसा नहीं रहा, उस दिन भी वह उन्हें चाय पीला देगा और कहेगा, कोई बात नहीं जाइए, फिर कभी दे दीजिएगा, इनसान से ही तो भूल गलती होती है न। इस तरह उसका दोष कट जाएगा। ऐसा लोकबाबू को भी लगता था।
लोकबाबू की दाढ़ी एक दिन की बढ़ी हुई थी। एक दिन की दाढ़ी में लोकबाबू अक्सर उदास लगते। चेहरे पर एक दिन की हरी दाढ़ी अक्सर रहती। टोपाज ब्लेड से दाढी बनाते और सेविंग क्रिम नहीं लगाते थे। लाइफ बॉय साबून मलते थे। जिस दिन दाढ़ी बनाते उस दिन भी एक दिन जितनी दाढ़ी छुट जाती।
चाय पी कर, हम लोग दुबारा साइकिल नाधे तब मैंने चुपके से आधी दर्जन प्रेम कहानी वाली बात बता दी। पहली बार लोकबाबू ने दिलीप कुमार की तरह रियेक्ट किया- ना मुन्ना... ना मुन्ना ना..., वाले स्टाइल में, पर यह बदला हुआ समय था। लोकबाबू शाहरुख की तरह लगे- उम्म्म्म्म न्न्न्नाह वाला स्टाइल था। लोकबाबू बाजिगर वाला चश्मा पहने थे.... गरीबी पर लिखो, भूखमरी पर लिखो, चोर पर लिखो, दलाल पर लिखो पर प्रेम कहानी मत लिखो... उम्म्म्म न्न्नाह।
और यही वह जगह थी, जहाँ से कई बार हम पक्की सड़क छोड़ कर खेतों के बीच से होते हुए, मैदान पार कर, पगडण्डी पकड़ लेते। जल्दी पहुँचने की गरज से। वहीं बीच मैदान में साइकिल रोक कर लोकबाबू ने झोला से एक पोस्टकार्ड निकाल कर दिखलाया। उनका चेहरा बर उठा। पोस्टकार्ड लोकबाबू के नाम था। पोस्टकार्ड पर एक गन्दे राइटिंग में उनको धन्यवाद दिया गया था। भेजने वाले का नाम विष्णु प्रभाकर था। लोकबाबू के घर और दस-बारह ऐसे ही पोस्टकार्ड थे- दूसरे-तीसरे साहित्यकारों के लिखे।
लोकबाबू के प्रति इज्जत और बढ़ गई।
-मिलो, सबसे मिलो। परसो वाली कहानी की खासियत देखे थे? लेखक को मोची, पान वाला, सब्जी वाला, ठेला वाला, अण्डा वाला, डाकिया सब का नाम याद है। सबके बारे में पता है। तुम जहाँ साइकिल बनवाते हो उसका नाम तुम्हें पता है? सबके बारे में जानो और जानो कि वहाँ क्या है।– लोकबाबू साइकिल चला रहे थे। मैं थक गया था। कैरियर पर असवार होने से ज्यादा थकान होती थी। फिर भी सुकून रहता कि हम सुस्ता रहे हैं।
-पर लिखूँ किस पर?
कहा तो, उस पेपर बेचने वाले पर लिखो। बहुत गरीब है। रोज पचास किलोमीटर साइकिल चलाता है- पचपन साल का बूढ़ा।
चारों तरफ गेहूँ के खेत बिछे थे। बीच की पतली पगडण्डी, धरती पर राकेट का धुआँ सा दिखता था। लोकबाबू का झोला लेकर, मै पीछे कैरियर पर बैठा था। मै थका जा रहा था। पेड़ो के नीचे बैठे-बैठे लोग सुस्ता रहे थे। एक टिटिहरी हमारे पीछे पीछे बोलती आ रही थी। विरान, शान्त, खेत, खलिहान और सरसराती हवा में एक टिटिहरी की पीछा करती आवाज- प्रेम कहीं नहीं था।
पगडण्डी के बीचोबीच एक जामुन का पेड़ था। रास्ता पेड़ का परिक्रमा कर फिर सीधा हो जाता। वहीं से गुजरते हुए, जामुन पर बैठा तोता बोला -लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगे। साइकिल खेत में डगर गई।
-तब! लिखूँ?
साइकिल मैं चला रहा था। लोकबाबू ने धीरे से कहा- लिखो।
लोकबाबू अपने घर चले गए। घर में पत्नी थी। दो बेटियाँ, एक बेटा था। बेटियों का नाम निधी और रेनू था। मयंक बेटा था। पत्नी के घुटनों में हमेशा दर्द रहता। कभी-कभार चिल्हकता था। लोकबाबू घर में होमियोपैथिक गोलियाँ रखते थे। पत्नी का नाम पेउली था। शाम को सब बच्चे ओसारे में लालटेन बार कर पढ़ रहे थे। लोकबाबू को आते देख सब और जोर-जोर से पढ़ने लगे। उनके बच्चे उन्हे सिर्फ बाबू कहते। दुनिया लोकबाबू कहती। पोस्टकार्ड पर आलोक नाथ राय लिखा था।
लोकबाबू सीधे घर के अन्दर चले गये। पत्नी आँगन में सब्जी काट रही थी। लोकबाबू जब घर में नहीं रहते थे, तब पत्नी ओसारे में बैठे दिन काटती। आँगन में अभी अँजोर था। गरमी में देर तक अँजोर रहता है। पत्नी ने अपना पीढ़ा लोकबाबू की ओर सरका दिया। लोकबाबू पीढ़ा पर बैठ गये।
-मैं आ रहा था कि रास्ते में एक तोता बोला, लोकबाबू।
पत्नी हँसने लगी- अरे ओ महन्त जी का तोता होगा।
-लेकिन, मैंने कभी अपना नाम उसे नहीं बतलाया।
-किसी दुसरे के मुँह सुना होगा।
-तो उसे कैसे पता कि यह मेरा ही नाम है?
-तो तुम्हें कैसे पता कि वह तुम्हें ही बोला?
-अरे, मेरे ऊपर बोला।
-हो सकता है कि वह ऊपर बोला हो और उसी वक्त तुम ठीक उसके नीचे से गुजरे हो।
-पर वो बोला क्यों?
-उसे अच्छा लगता होगा। जैसे लाल मिर्च अच्छी लगती है, वैसे लोकबाबू।
-तो हर कहीं बोलेगा?
-हो सकता है।
-तब तो बदनामी होगी।
-तब क्या करोगे, उसे पकड़ोगे?
-नहीं, मैं पकड़ नहीं पाऊंगा।
-तब, उसे ढेला मारोगे?
-नहीं, तब वह और बोलेगा और गाली भी देगा।
-तब?
-तब, महन्त जी से बोलूंगा।

भूतनाथ महाविद्यालय से गाँव आते वक्त डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जो चौराहा था, वही गाँव से महाविद्यालय जाने में ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर था। चौराहे के बिचोबीच, सड़क की बाईं तरफ एक बरगद का पेड़ था। पेड़ की मोटी डाल पर लटकती एक पीली तख्ती पर लिखा था- ऊँचकागाँव, ब्लॉक ऊँचकागाँव। ऊँचकागाँव को लोग बड़कागाँव बोलते थे। बड़कागाँव कहीं नहीं लिखा था। तख्ती पर लिखे ऊँचकागाँव को सब ऊँचकागाँव पढ़ते थे और बड़कागाँव बोलते थे।
दुनिया में हर कहीं धोखा था फिर भी हम सरकार पर विश्वास कर लेते थे। लोकबाबू कहते सरकार पर विश्वास करो। सरकार लाचार है।
मैंने कहा, छपरा स्टेशन के पीली तख्ती पर छपरा लिखा है- हिन्दी में। अंग्रेजी थोड़ी-थोड़ी आती है सो अंग्रेजी में भी छपरा लिखा है। उर्दू पढ़ने नहीं आती; पर उर्दू में भी छपरा ही लिखा होगा, इतना विश्वास करूँ सरकार पर?
-हाँ, करो, इतना तो जरूर करो- कैरियर पर बैठे लोकबाबू कहते।
-बंगाल में स्टेशनों के नाम तीन भाषाओं में लिखे होते हैं- अंग्रेजी, बांग्ला और हिन्दी में। हिन्दी वाला नाम अक्सर गड़बड़ लिखा होता है- गणेश मास्टर कहते हैं। इसलिए कभी-कभार विश्वास डोलता है। कि हमे भाषा में धोखा दिया जा रहा हो तो? कि हमें चिन्ता होती है- मैं कहता। लोकबाबू कैरियर पर थोड़ा व्यवस्थि हुए तो साइकिल डगमगा गई। एक बच्चा भिड़ते-भिड़ते बच गया। बच्चा दूर जा कर गुस्से में चिल्लाया- ऐ लोकबाबू लउकता नहीं है? लोकबाबू तुरन्त समझ गए कि महन्त जी के तोते ने ही सब जगह उनका नाम प्रचार किया है। नहीं तो इतना छोटा बच्चा उनका नाम आखिर कैसे जानता। लोकबाबू को फिर तोते की हरकत पर चिन्ता हुई। और चिन्तित लोकबाबू ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। तुम गणेश मास्टर से दूर रहो। वह ऐसा ही भड़काऊ बात सोचता है।
इस बदहवास भागते समय में लोकबाबू ने एक छोटा सा छुईमुई का पौधा लगया था कि दुनिया थोड़ा सा ऑक्सीजन यहाँ से भी ले सके। कुछ दिन और जी सके। लोकबाबू इस व्यवस्था में नुक़्ते जितनी जगह घेरते थे। सबका राशिफल अच्छा-अच्छा लिखते थे कि लोग अपने अच्छे हिस्से से खुश हो सकें- बस।
-मुझे लगता है कि मैं पेपर बेचने वाले पर कहानी नहीं लिख सकता। मैने बहुत पूछा तो उसने सिर्फ अपना नाम बतलाया- मुकेश।
-उसका नाम बदल कर रामसहाय कर दो। कहानी में पेपर बेचने वाले का नाम मुकेश, अच्छा नहीं लगता। बाकी सब मै बतला दूंगा।
-सुनिये ना लोकबाबू, मैंने उन्हें साइकिल पकड़ा दी, उसका नाम बदलना ठीक नहीं होगा। उसके माँ-बाप ने यह नाम बड़ी हसरत से रखा होगा। हमे क्या हक है, किसी का नाम बदलने का।
-कहानीकार के पास बस इतना ही हक तो होता है। बाकी तुम उसे तो बदल नहीं पाओगे। जितना बदल पाते हो बदलो। और रही बात हसरत की तो उस हसरत में कि वह बड़ा हो कर पेपर बेचेगा, नहीं होगा।
महाविद्यालय आ गया था। लोकबाबू साइकिल पर सवार अब चले जा रहे थे। कैरियर पर एक झोला था। झोले में एक पुरानी डायरी, एक अखबार और एक पोस्टकार्ड था। पोस्टकार्ड में लिखा था- आप एक सुदूर गाँव में रह कर हमें इतना पढ़ते हैं, जानकर अच्छा लगा। बहुत-बहुत धन्यवाद- निर्मल।
लोकबाबू बहुत बाद में बी.ए. किए थे। और उन्हें शिक्षक होना था। वे कभी-कभार मास्टर-मास्टर लगते भी थे। बहुत दूर बस से ऑफिस जाते समय बहुतों को लोकबाबू मस्टर ही लगते। मेघदूत बस का कण्डक्टर मोती उन्हें माट्साब पणाम कहता। लोक बाबू धीरे से हाथ उठाकर पणाम-पणाम कहते। उन्हें अच्छा लगता था।
-लोकबाबू! मास्टर पर कहानी लिखें?
-हाँ, जगन्नाथ मस्टर पर लिखो- लोकबाबू ने बड़े उत्साह में कहा।
-जगन्नाथ मास्टर का नाम बदल कर गणेश मास्टर कर दें?
-नही, जगन्नाथ तो ठीक है।
-पर मैंने तो जगन्नाथ मास्टर से पढ़ा ही नहीं है। गणेश मास्टर से पढ़ा है।
-नहीं, जगन्नाथ मास्टर पर लिखो। वे बहुत गरीब थे। दयालु थे, विद्वान थे। हर साल एक लड़के का फीस माफ करते थे- यह कहते हुए लोकबाबू भावुक हो गये। भावुक लोकबाबू ताड़ के पेड़ पर ताकने लगे। ताड़ के पेड़ पर एक कौवा का घोसला था। कौवा शराफत से अपने घोसले के पास बैठा था। जामुन के पेड़ पर तोता का घोसला नहीं था। तोता जहाँ-तहाँ अकेला घूमता था और उत्पात करता था। तोता बाँड़ था। लोकबाबू ने सोचा तोता का भी घोसला होता तो तोता इतना उत्पाती नहीं होता।
ऐसा अक्सर होता कि पता भी नहीं चलता और महाविद्यालय आ जाता। साइकिल पर सवार लोकबाबू जाते हुए बहुत दूर दिखते। कभी-कभी मन करता कि क्लास न करूँ। चुपके से साइकिल के कैरियर पर बैठ जाऊँ, धीरे से कहूँ- लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगें। उन्हें लगे कि तोता बोला। तब बहुत बाद मे मैं कहता- मैने बोला, लोकबाबू। और इस झूठ-मूठ के कहे पर सचमुच के खुश हो जाएँ लोकबाबू। और यह देख कर कितनी खुशी, कितनी राहत कि मेरे मुंह से लोकबाबू सुन कर उनके चेहरे की रंगत वापस अपनी जगह लौट आये। ऐसा अक्सर होता।
कॉलेज में हमारे साथ बहुत कम लड़कियाँ पढ़ती थीं। मैं उन सब लड़कियों के पैरों की एड़ियाँ देखता। फटी एड़ियों वाली लड़कियाँ मुझे गरीब-गरीब लगती। मैं उन पर कहानियाँ लिखने के बारे में सोचता। प्रेम कहानी। गरीबी में प्रेम कहानी।
इस तरह मैं सोचता रहता कि साइकिल पर सवार लोकबाबू धीरे-धीरे आ जाते। मै उन्हे गरीबी मे प्रेम कहानी वाला प्लॉट सुनाता। लोकबाबू मायूस हो कर कहते -अखबार मालिक पर कहानी लिखो।
टी.वी. में सैकड़ों चैनल आ गये थे। न जाने कई न्युज चैनल भी। अखबार और पत्रिकायें भी बढ़ी थीं। अब ये दुनिया ब्लैक एण्ड ह्वाइट नहीं रही थी। अखबारों, पत्रिकाओं के प्लास्टिक पेज पर, ब्रैसियर-अण्डरवियर के प्रचार में तैलीय त्वचा वाली नायिकाओं के फोटो छपते थे। जो जितना दिखता था, वो उतना बिकता था। वहीं ये छह पेजिया ’दुनिया-जगत’ उन सारी पत्रिकाओं में पोतन सा दिखता था। यह अखबार साहित्य को ज्यादा कवर करता। रेणु के कई फीचर्स और रिपोतार्ज इसमें छपे थे- बहुत पहले।
इसके संस्थापक एवं संपादक हिन्दी के जाने-माने ललित निबन्धकार पण्डित भैरव प्रसाद थे। इस अखबार से जुड़े और भी कई बड़े नाम थे। यह अखबार 21-फरवरी-1933 को बिहार के मीरगंज नामक एक कुनबे से प्रकाशित हुआ – छिन्दवाड़ा से प्रकाशित साप्ताहिक लोकमित्र-16 फरवरी 1923- के ठीक दस साल बाद। कहते हैं कि दुनिया जगत निकालने से पहले भैरव बाबू तब लोकमित्र से ही जुड़े थे। बाद में, हिन्दी जिलों की प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी को लेकर हुई किसी खींचा-तानी में भैरव बाबू उससे अलग हो गए और यहाँ कलम-दवात लेकर दुनिया-जगत निकालने लगे।
एक समय अपने सम्पादकीय के बल पर यह अखबार हिन्दी के टॉप पाँच अखबारों में शामिल हुआ।
बाबू भैरव प्रसाद ने ही पहली बार दुनिया-जगत के सम्पादकीय में यह खुलासा किया कि 1934 में गाँधी क्यों सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर ग्रामोद्धार एवं अछुतोद्धार के कार्य में जुट गये थे।
कि जवाहर लाल नेहरु के अथक राजनैतिक प्रयासों से नवयुवकों का एक छोटा सा दल, कांग्रेस समाजवादी दल के नाम से, सन्‌ 34 में पटना में गठित हुआ। इस दल के अध्यक्ष नरेन्द्र देव तथा सचिव जयप्रकाश नारायण थे। कौंसिल प्रवेश का विरोधी यह दल, गाँधी की राजनीति का भी घोर आलोचक था।
कहते हैं कि अखबार के इस बेबाक दृष्टि ने उस समय भारत के तमाम बुद्धिजीवियों को अपनी तरफ आकृष्ट किया था और शायद यही वजह थी कि बाद के दिनों में इस अखबार से और भी कई नाम जुड़े जिनमें शिवपूजन जी, फणीश्वर नाथ, रामधारी सिंह, अनन्त नाग, उमाशंकर आदि कई उल्लेखनीय है।
और उन बड़े नामों की फेहरिश्त में एक नाम तारक नाथ राय का भी था।
... और क्या यह एक गर्व था या उसी जैसा कुछ कि लोकबाबू मास्टर न बन पाने के मलाल के बावजूद इस अखबार से जुड़ कर खुश थे। और अब उसी अखबार के बन्द हो जाने की खबर उन्हें कहीं अन्दर तक तोड़ रही थी।
भैरव बाबू का पोता अनुज अखबार का मालिक था। अखबार से इत्तर भी उसके कई कारोबार थे। वह भोजपुरी फिल्मों और शेयर बाजारों में पैसा लगाता था और बहुत बाद के दिनों में दुनिया-जगत के पिछले पन्ने पर, हर तरह के प्रूफ से छन कर आई, भोजपुरी सिनेमाओं की ‘बेबों’ की ब्लैक एण्ड ह्वाइट तस्वीरें छपने लगी थी। बावजूद इसके, अनुज के हाइटेक और रंगीन कारोबारी दुनिया में यह अखबार वाला पोरसन कहीं नहीं फबता था। बहुतों ने उसे सलाह दी कि वह अखबार को बन्द कर स्टारडस्ट या फिल्मी कलियाँ जैसी पत्रिकाएँ निकाले। पर अखबार-पत्रिका वाला काम उसे सिहुर-सिहुर लगता था। वह भोजपुरी का एक चैनल लॉन्च करना चाहता था और उसने अखबार को बन्द करने का निर्णय लिया था।
लोकबाबू अक्सर सोचते कि अपने अखबार में अपना राशिफल अपनी तरह से लिखा जा सकता है, लेकिन दूसरे के अखबार में दूसरे का झूठ अपना राशिफल होगा।
अपना अखबार तो अपनी किस्मत। दूसरे का अखबार मतलब...
लोकबाबू का एक दाँत नकली था। मैंने कभी उनके दाँत के बारे में नहीं पूछा। वे हँसते थे तो सारे दाँतो के बीच नकली दाँत अलग से दिखता था। वे मूँछ रँगते थे। बाल नहीं रँगते। मूँछों की सफेदी को देख कर तारीख का अन्दाजा लगाया जा सकता था। कोई लोकबाबू से पूछता आज सताइस तारीख है क्या? लोकबाबू समझ जाते कि मूँछ के सारे सफेद बाल दिखने लगे हैं। तीन दिन बाद रँग लेना है। एक तारीख को मूँछ काली होती फिर गिनती शुरू...
जस-जस तारीखें बढ़ती, मूँछों के रास्ते लोकबाबू तस-तस अधेड़ लगते। शरीफ-शरीफ अधेड़। अक्सर इन दो विशेषणों के साथ लोग विस्मृत हो जाते हैं। पर बावजूद इन दो विशेषणों के लोकबाबू हमेशा हाइलाइटेड रहे।
देर शाम पसीने से तर लोकबाबू महाविद्यालय के सामने सड़क पर आए। मैं उनके आने का ही इंतजार कर रहा था। उनके राह तकते मैं कभी थकता नहीं था। पाकड़ के नीचे बैठ कर, पचीस पैसे की मुँगफली खाते हुए राह तकता था। लोकबाबू साइकिल चलाते हुए मेरा इंतजार करते पहुँचते। वे इंतजार करते-करते थक जाते। लोकबाबू के मूँछ पर तेइस तारीख का शनिवार था। पसीने से तर लोकबाबू मुझे ताक कर आदतन मुस्कुरा दिये। नकली दाँत दिखा। मुस्कुराहट में सावन का महीना था।
-आज लेट हो गए? मैं पाकड़ के पेड़ के नीचे आपकी राह देख रहा था।
-हाँ, जल्दी-जल्दी आए फिर भी लेट हो गया। आज शनिवार है, फाइनल प्रूफ देखना होता है। रविवार को अखबार निकलता है। और जल्दी चलो नहीं तो बारिश भी हो सकती है। मै इसीलिए जल्दी-जल्दी आया- लोकबाबू एक साँस में कह गए।
हम लोगों ने रास्ते में चाय नहीं पी। बारिश कभी भी हो सकती थी। मैंने कहानी की बात नहीं छेड़ी, सिर्फ एक लड़की की बात बतलाई। लोकबाबू ने मुझसे एक साइकिल की बात बतलाई। उन्होने अपनी पत्नी की मुहदिखाई में एक चाँदी की चेन दी थी और अपनी साइकिल बेंच दी थी। और ये भी कि जब उनके पास साइकिल थी तब उनके बड़े-बड़े बाल थे। और ये भी कि जब वे साइकिल से लहराते हुए चलते तब लोग उन्हे जैक्सन-जैक्सन कहते थे। माइकल जैक्सन।
यह सब बहुत पहले की बात नहीं थी। पर मैंने लोकबाबू के बड़े बाल कभी नहीं देखे थे। लोग बीते समय का हवाला दे कर सट्टा खेलते हैं। मैंने उन्हें संदेह से नहीं देखा। आखिर आदमी अपनों से ही तो झूठ बोलता है। मैं लोकबाबू का अपना था। लोकबाबू अक्सर अकारण झूठ बोलते थे। और चूंकि वे हमेशा चुप-चुप और अकेला रहते सो उनके उम्र का पता किसी को नहीं चलता था। और वे उम्र की बात भी झूठ बोल जाते। लोकबाबू के सभी अपने थे।
लोकबाबू जब घर पहुँचे तब सचमुच का अन्धेरा था। ओसारे में बच्चे पढ़ रहे थे। उनके साथ-साथ लालटेन भी पढ़ रही थी। लालटेन से दूसरा काम नहीं होता। बच्चे कहते यह पढ़ने वाली लालटेन है।
लोकबाबू ने बच्चों को पढ़ते देखा और उन्हें बेटी की शादी की चिन्ता हुई। बड़ी वाली चौदह की थी। वे सीधे आँगन में चले गये। पत्नी अन्धेरे में उनकी राह तक रही थी। उन्होने अन्धेरे में एक गिलास पानी मांगा। पत्नी गुड़ और एक गिलास पानी ले कर उनके सामने खड़ी हो गई। गुड़ साँझ जितना काला और रात जितना मीठा था।
-आज इधर बारिश हुई? लोक बाबू आँगन मे पीढ़ा पर बैठे थे।
-नहीं, उधर हुई?- पत्नी लालटेल का शीशा साफ करने लगी।
-नहीं।
-तो, फिर क्यों पूछे?
-उधर नहीं हुई थी, इसीलिए पूछा?
-उधर हुई होती तो नहीं पूछते?
-नहीं, तब समझ जाता कि इधर भी जरूर हुई होगी।
-उधर नहीं हुई तो क्यों नहीं समझ लिये कि इधर भी जरूर नहीं हुई होगी।
-बाहर रहने पर घर की बारिश की चिन्ता होती है।
-घर में रहने पर बाहर की चिन्ता होती है?
-चिन्ता होती है, पर बारिश की नहीं, तोते की।
-तुमने महन्त जी से कहा?
-हाँ, कहा था।
-उन्होंने क्या कहा?
-कहा कि अब तोता मेरे बस में नहीं है, अब उसकी गलती मेरी गलती नहीं है।
पत्नी ने लालटेन जला दिया। लोक बाबू पत्नी को ताक कर मुस्कुरा दिये। नकली दाँत दिखा। लोक बाबू की आँखें भुरी नहीं थीं। नकली दाँत थोड़ा हल्का भूरा था। पत्नी ने कहा- तुम राज कपूर की तरह लगते हो।
-और तुम नरगिश की तरह।
इतने में पत्नी के हाथ पर सचमुच की दो-चार बारिश की बुँदिया गिरी। पत्नी ने कहा- बरसात।
लोकबाबू ने कहा- प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।
पत्नी ने कहा, धत्‍ श्री चार सौ बीस।
सुबह रविवार था।
रविवार की सुबह लोकबाबू खुश थे। सुबह-सुबह दतुन तोड़ने गए लोकबाबू ने नीम के पेड़ पर एक चिरई का खोंता देखा और खुश हो गए। खुश हो गए कि आज दफ्तर नहीं जाना था। पहुनाई जाना था। उनकी बहन बीमार थी।
लोकबाबू सुबह-सुबह साइकिल मांगने आये।
-अरे! आज नया बूशर्ट पहने हैं? लोकबाबू आज सुन्दर लग रहे थे। मूछों पर भदवारी की पहली तारीख थी। लोकबाबू ‘टाइड सर्फ’ के विज्ञापन वाले लड़के सा चहक कर बोले, धत्‍! ई तो हमरा पुराना बुशर्ट है।
लोकबाबू खुश थे कि पहुनाई जा रहे थे। लोकबाबू दुखी थे कि बहन बीमार थी।
लोकबाबू साइकिल से चले जा रहे थे। मैंने साइकिल का चेनकवर ठीक करवाया था। आज छुट्टी के दिन साइकिल के पीछे कोई आवज नहीं छुट रही थी। लोकबाबू चले जा रहे थे, आज मैं छुटा रह गया था। वे चले जा रहे थे- सीर को एक तरफ झुकाए, ऐसे मानो हर कदम किसी का समर्थन करते जा रहे हों।
सच कहूँ तो अखबार वाला, जगन्नथ मास्टर, गणेश मास्टर या अधुरी प्रेम कहानियों पर मुझे कहानी कभी नहीं लिखनी थी। लोकबाबू से मैंने झूठ बोला था। लोकबाबू अपने थे।
साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे, आँख से ओझल होते कि साइकिल रुक गई। लोकबाबू साइकिल से कूद कर उतर गए। साइकिल को स्टेण्ड किया और साइकिल की दाईं तरफ बैठ गए।
मैंने जोर से चिल्लाया- लोकबाबू। लोकबाबू ने ऊपर नहीं देखा। मेरी तरफ देखा। मैं वहाँ तक दौड़ कर गया था।
-लोक बाबू एक कहानी लिखूँ? मैं हाँफ रहा था।

-लिखो।– लोकबाबू सिर नीचे किये चेन चढ़ा रहे थे। परेशान थे कि रास्ते में चेन बार-बार उतरेगा।
-लिखूँ कि एक लोक बाबू थे...
सिर उठाये तो नाक पर चेन की कालिख लगी थी, होठों की दाहिनी कोर पर बरसाती दिन-सा एक भींगी मुस्कान, बाजिगर वाले चश्मे के पीछे लोकबाबू आँखों से खुश थे, बोले- और?
-और कुछ नहीं, ...बस एक बहुत सुदूर गाँव मे एक लोकबाबू रहते थे।
जिन्दगी में वह पहली बार था कि तोता एक जिम्मेवारी के साथ नीम की दिशा में उड़ता चला जा रहा था। लोकबाबू को तोते के बारे में दूसरी तरह की चिन्ता हुई।
कहानी में यह पहली ही बार था कि लोकबाबू ने एक कहानी शुरू करने की दिशा में मारे खुशी के बेपरवाही में कहा था- और!
तोते ने नीम की दिशा में उड़ते-उड़ते बोला
-...कि और एक गुलशन नन्दा।