सोमवार, 16 अप्रैल 2012

जादू : एक हँसी, एक हीरोइन


(वैसे वहाँ कुछ नहीं था, जहाँ वे नहीं थे सिर्फ एक एहसास था जो उनके लिए सब कुछ था । जिन्दगी के इस बदलते दौर में जहाँ परिचय की शुरुआत किसी दुर्घटना की तरह होती थी। मृत्यु का समाचार सुनकर पता चलता था कि यह आदमी अब तक जिन्दा था। वहीं इस कहानी की सत्यता के पक्ष में कहीं कोई हलफनाम दर्ज नहीं होना चाहिए था।)
अंतत: टीले की तलाश समाप्त हुई। नहीं तो पहले साइकिल पर चढ़ने के लिए रोज ही एक टीले की तलाश करते थे अनिरुद्ध भाई। पूरा नाम अनिरुद्ध प्रसाद सिंह। जाति के भूमिहार हैं। मित्र तो नहीं कहेंगे बस एक रागात्मक व्यवहार है। औपचारिक बात-चीत। वे मुझे शरीफ समझते हैं और मैं उन्हें…।
साइकिल पर चलते-चलते रोज नई-नई बात सोचते हैं अनिरुद्ध भाई। कभी रामायण सोचते हैं, कभी राजनीति सोचते हैं, फिल्म, नौकरी, लड़की, कविता, कहानी, बचपन, जवानी, कमाई-खर्च, दिन-रात, सुबह-शाम, हवा-वर्षा- जाड़ा, खेत-खलिहान - ….सब। यह सारी सोचें पहले अव्यवस्थित थीं। अब एक निश्चित दिनचर्या के तहत पूरी होती हैं। यह बात भी इनके मिजाज में कुछ सोचते वक्त ही आई थी कि वे तो बहुत कुछ सोचते हैं। केवल इन्हें क्रमबद्ध, लयबद्ध एवं व्यवस्थित लरने की जरूरत है। सारा सोचें क्रमवार, व्यवस्थित ढंग से हों तो आदमी बना जा सकता है। और उन्होंने एक सिद्धान्त खोज निकाला- आदमी पढ़ने से ही नहीं सोचने से भी विद्वान बन सकता है।
और अब साइकिल पर चढ़ने से पहले ही सोच लेते हैं कि आज उन्हें सोचना क्या है।
साइकिल पर सवार अनिरुद्ध जी कुछ सोचते हुए कहीं जा रहे थे। पूछने पर पता चला अंग्रेजी के कुछ शब्दों पर विचार कर रहे हैं। अनिरुद्ध जी साइकिल से कुद कर नीचे उतर गए। कहने लगे- “यार, चाहे जो भी हो पर प्यार को किसी ने जन - जन तक पहुँचाया है तो वह अंग्रेजी ही है।” मैं चुप था, वे कहते रहे- “अंग्रेजी नहीं होती तो भला कौन किससे कहने जाता कि मैं…तु…म…से… प्या…र… क…र…ता… हूँ… या मैं…तु…म…से… प्या…र… क…र…ती… हूँ” वाक्य इस रफ्तार से कहा गया मानो यह कहने में सदियों गुजर जायेंगे – और सच तो ये था कि गुजरते भी थे। आगे, “यहाँ तो थैंक्यू भी बोलो तो लगता है आई लभ यू बोल रहे हो” – यकीन मानिये कि आई लव यू बोलते घड़ी अक्षर की तरह होंठ भी उसी साइज में आड़े-तिरछे हुए थे-“देखो तो तो प्रमोद, इस अंग्रेजी ने कितने अच्छे-अच्छे शब्द दिये हैं-थैंक्यू, डार्लिंग, इक्सक्यूज मी, प्लीज इत्यादि। जानते हो प्रमोद, ये सारे के सारे शब्द आई लभ यू बन सकते हैं। आदमी के पास शब्दों का इस्तेमाल करने की कला होनी चाहिए। आदमी के पास अदायगी और लड़कियों के पास नजाकत हो तो प्यार तो साला सॉरी से भी शुरू हो सकता है।
अन्तिम वाक्य कहकर अनिरुद्ध जी ने इस कदर आँखें बंद की मानो उन्हे पीएच.डी. की थेसीस पर डॉक्टरेट की उपाधि मिल रही हो।
अनिरुद्ध जी की बन्द आँखें कि अनुभव और विषाद के बीच का मध्यान कि मौखिक वक्तव्य का पहला अल्पविराम कि मेरे निकल जाने भर का छोटा-सा दराज कि बन्द आँखों वाले इस सज्जन के कन्धे पर हाथ रखते हुए मैने कहा, “सही है अनिरुद्ध भाई, एकदम सही।” मैं पीपल के सोर पर खड़ा हो गया। अनिरुद्ध भाई एकदम थथमथा गए- अपनी बड़ाई सुनकर या बात को जल्दी खत्म कर देने के आश्चर्य से- मालूम नहीं क्यों।
अनिरुद्ध भाई बोलते हुए अच्छे आदमी लगते हैं। मैं अपनी तथा उनकी बातें सोचते हुए, उनकी विपरीत दिशा में चलते-चलते पीछे मुड़ा तो टीले की तलाश मे जा रहे अनिरुद्ध भाई एक अनुभवी तथा बुजुर्ग गिद्ध की तरह दिखे- जो किसी सूखे हुए वृक्ष के टूटे हुए शाख की तलाश मे चला जा रहा हो। दरअसल टीला ढूँढ़ने वाली समस्या उन्हें तब होती थी, जब वे अपने घर से किसी अलक्षित मंजिल की तरफ निकल चुके होते थे और बीच में ही कहीं अकारण रुक जाना पड़ता था- जैसे कि आज। नहीं तो जब एक दिन सत्यदेव चौधरी के दुआर पर भैंस बाँधने वाला खूँटा गड़ा। उस दिन बहुत प्रफुल्लित हुए थे अनिरुद्ध भाई। तब से, घर से निकलकर साइकिल डुगराते हुए आते और इसी खूँटे से उड़ान भरते। साइकिल थोड़ी डगमगाती थोड़ी दायें-बयें करती। फिर सम्भलकर अपनी गजगामिनी की गति पकड़ लेती-यह साइकिल की दिनचर्या थी।
यदि सच पूछें तो आज कल मै अनिरुद्ध भाई से थोड़ा कतराने लगा हूँ। सोचता हूँ अनायास किसी दिन चौराहे पर पकड़ कर कहने लगें – यार प्रमोद, आज-कल मैं हिन्दी के शब्दों पर विचार कर रहा हूँ- तब मेरा क्या होगा। मैं तो वहीं खड़े-खड़े जमीन में सात हाथ गड़ जाऊँगा। क्योंकि तब तक अनिरुद्ध भाई समझ चुके होंगे कि –सही है अनिरुद्ध भाई , एकदम सही- का अर्थ उनकी बातों का समर्थन करना नहीं बल्कि उनसे पीछा छुड़ाना होता था।
पर एक बात है कि पिछले तेरह सालों से साइकिल पर सवार अनिरुद्ध भाई को कभी इस तरह नहीं देखा गया किल लगा हो कि वे कहीं जल्दी में हैं। हाँ, कभी-कभार ऐसा जरूर लगा, मानो वे सर्कस में हों या स्लो-साइक्लिंग कम्पटिशन में। इस बारे में भी अनिरुद्ध जी का एक तर्क है जो धीरे-धीरे सिद्धन्त का रूप ले रहा है। वह यह कि जो धीरे-धीरे साइकिल चलाता है वह सभ्य और शरीफ आदमी होता है और जो तेज तेज… वह लफंगा।
अभी तक अनिरुद्ध के साथ जी और भाई जैसे शब्द सुनकर आपको लगता होगा कि वह एक अधेड़ आदमी हैं पर यह सम्मान उनकी दिनचर्या को दी जाती है जो उन्हें समान देने के लिए विवस करती है। लेकिन दरअसल यह कहानी गिरधर परसा गाँव के उस अनिरुद्ध की है, जिसका एक बाप था, एक माँ थी, एक बिरादरी थी, कुछ खेत थे, बारहवीं पास का सार्टिफिकेट था। और वह… वह अपने आप को बुद्धिजीवी मानने से इंकार कर रहा था उसका मानना था कि इस देश की मौजूदा हालात समाज में तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोगों की ही देन है।
आगे कि बात यह है कि वे सिर्फ चाय पीते हैं और एक लड़की से प्यार करते हैं। वह लड़की जब भी उनके सामने आती है। शराफत की बोझ तले दबी हुई उनकी पलकें थोड़ी और झुक जाती है। लड़की, उन्हें एक पुरानी फिल्म की हिरोइन की तरह लगती है। नहीं, नहीं लड़की नहीं सिर्फ कड़की की हँसी। पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी की तरह लगती है। जिसका नाम उन्हे मालूम नहीं –लड़की का नहीं हीरोइन का। लड़की का नाम पुष्पा है- पुष्पा। अनिरुद्ध भाई चाहे तो उसकी हँसी पर एक कविता लिख सकते हैं या चाहे तो एक गाना भी गा सकते हैं- क्या खूब लगती हो, बड़ी सुन्दर दिखती हो।
वह उन्हें भइया बोलती है। उन्हीं के गाँव के पूरब टोला की धोबिन की लड़की है।
समय गाँव से लेकर शहर तक, हर जगह बदल रहा था, फर्क बस इतना था कि उस समय भी लोग पृथ्वी को नहीं सूरज को घूमते हुए मान रहे थे।
कुम्हार मिट्टी का बर्तन बनाना छोड़कर मिट्टी में सब्जियाँ उगा रहे थे। लुहारों के लड़के ड्राइवरी या चिमनी पर ईंट ढोने का काम कर रहे थे। डोम जो बाँस के झाडू और टोकरी बनाते थे अब उसी टोकरी से बालू ढोकर ट्र्कों पर लादते और दिहाड़ी पचपन रूपये पाते। वहीं पवरियों, चुड़ीहारों, भाटों और औरतों के हाथ पर गोदना गोदने वाली नेटुआइनो की तो प्रजाति ही बदल चुकी थी या यूँ कहें समाप्त हो चुकी थी। वहीं धोबियों ने गदहा पालने और गाँव के फटे पुराने कपड़े धोने के एवज में, किसी तीज त्योहार पर साल में एक बार कुछ मिल जाने के आस को छोड़ कर, खेतों मे काम करने और मजदूरी करने का बीड़ा उठा लिया था पुष्पा उसी जाति की साँवली, पतली और कम बोलने वाली लड़की थी जो अनिरूद्ध भाई को भा गई थी।
अपनी जिन्दगी में सिर्फ एक बार छुए हैं पुष्पा को अनिरूद्ध भाई। कब? एक बार जब वह उनके खेत में रोपनी कर रही थी। खेत में पूरा पानी खड़ा था। घुटनों तक साड़ी उठाये पुष्पा की चाची। गंजी और गमछा पहने अनिरूद्ध भाई । और सलवार को घुटनों तक उठाए, हाथ की रंग बिरंगी चुड़ियाँ – जो पुरानी पड़ जाने के कारण एक ही तरह की लग रही थी- कोहनी तक उठाए तथा छाती की गोलाइयों को गंदे गमछे से ढके पुष्पा , धान की रोपनी कर रही थी। अनिरूद्ध भाई को एकाएक लगा कि उनके पांव के नीचे कुछ साँप जैसा जीव सरक रहा है। डर के मारे अनिरूद्ध भाई कुद कर भागना चाहे। पांव अंदर तक किचड़ में धँसा था सो वहीं गिर गए और उन्हें पुष्पा ने ही हंसते हुए उठाया था। तब।
अपने नाम के तरह शीतल आवाज की तरह शान्त, चांदनी रात की सुन्दरता और एक चाँद सी मुस्कान। ऐसा भला कौन होगा जो अपने आप को इस पुष्पा के हवाले नहीं कर देगा।
वैसे तो शरीर की हर गतिविधि दिमाग से संचालित होती है। आँखो के सामने कुछ आते ही पलकों का बंद हो जाना, शरीर पर मच्छर बैठते ही हाथ का वहाँ चला जाना इत्यादि। पर कुछ काम ऐसे भी हैं जिनमे दिमाग नहीं लगता, जैसे- साइकिल चलाते घड़ी पैडेल के साथ पाँव का घुमना। सो साइकिल चलाते वक्त जाड़े की रात में रजाई में घूस कर सोने का मजा तो नहीं कहेंगे पर बहुत मजा आता है अनिरूद्ध भाई को। जाड़े के इस मौसम में, जहाँ हवा हड्डियों तक का एक्स-रे कर देती है। सुबह सुबह उठकर नहा धोकर, पूजा पाठ करके साइकिल निकालते हैं। साइकिल थोड़ा पोंछते हैं। फिर बड़े छाप की बिछाने वाली चद्दर- जिस पर लाल और पीले रंग के कहीं न खिलने वाले फूलों की छाप होती है- ओढ़ कर चल देते हैं, सत्यदेव चौदरी के दुआर की ओर। सत्यदेव चौधरी का दुआर अर्थात भैंस बांधने वाला खूँटा अर्थात अनिरूद्ध भाई के टेक-अप होने का निश्चित जगह। यहाँ आकर साइकिल पर सवार होते हैं। साइकिल थोड़ी दाँयें-बाँये करती है। थोड़ी डगमगाती है। फिर एक मूक गति से पालतू जानवर की तरह साइकिल चल देती है। अनिरूद्ध भाई चल देते हैं। एकदम धीरा, गजगामिनी की गति और उनके मिज़ाज में एक पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे मकबुल फिदा हुसैन के मिज़ाज में मधुरी दीक्षित आई थी। अनिरूद्ध भाई मन ही मन थोड़ा मुस्कुरा देते हैं।
आजकल अनिरूद्ध भाई कहाँ जाते हैं? क्यों जाते हैं ? - किसी को कुछ नहीं मालूम। काफी छान-बीन के पश्चात कहीं गुप्त सूत्रों से पता चलाकि सुबह पौने सात बजे निकलते हैं। सीधा पूरब दिशा को जाते हैं। वहाँ दो खेत है, उसे निहारते हैं। वहाँ से ठीक उत्तर दिशा को जाते हैं। वहाँ और दो खेत है उसे भी निहारते हैं। और वहाँ से जब पश्विम का रूख करते हैं, तब घाम उग गया होता है। चद्दर को लपेट कर कैरियर में दबाते हैं। पेंट की जेब से काली फीते वाली घड़ी निकालकर हाथ में बाँधते हैं। और यह सोचने लगते हैं कि आखिर आदमी हाथ में घड़ी बाँधता है या घड़ी में हाथ। कितना अच्छा होता कि लोग घड़ी में हाथ को न बाँध कर हाथ में घड़ी को बाँध कर रखते। यहाँ तो लोगों ने घड़ी में हाथ बाँध कर जीना दूभर कर लिया है और गुमान कि हाथ में घड़ी बाँधते है। यह सोचते हुए पहुँच जाते हैं अनिरूद्ध भाई शंकर मोड़ चौराहे पर।
चाय, पान, दवा, दारू और किराना दुकानो से बना है यह चौराह। दुकानें यहाँ दो कतारों में है। कतारों के बीच से बिहार सरकार की एक सड़क गुजरती है। सड़क कब बनी मालूम नहीं। पर इस सड़क से भी पुरानी यहाँ कोई चीज है तो वो है रामाधार साह की चाय की दुकान। रामाधार की दुकान में चाय पीते हैं। अखबार पढ़ते हैं। हाथ में घड़ी और घड़ी में समय देखते हैं। रामाधार के लड़के को एक का सिक्का देते है। पकड़ी के सोर(जड़)पर खड़ा होकर साइकिल पर सवार होते हैं। साइकिल डगमगाती है। दाँयें-बाँयें करती है। साइकिल चल देती है। अनिरूद्ध भाई चल देते हैं। गाँव के सिवान पर रूकते हैं। घड़ी खोलकर जेब में रखते हैं। फिर चल देते हैं अपने नीड़ के तरफ। धीरे-धीरे, एकदम धीरा- गजगमिनी की गति।
ये सूचनएँ बिरजू ने दी। पूरे गाँव को पता है कि बिरजू झूठ जरूर बोलता है पर सूचना के मामले में नहीं। इस सूचना के बारे में वह अपने माँ तक की किरिया खने को तैयार है। तो यहाँ इस संसय की कोई गुंजाइश नहीं कि यह सूचना सही है या गलत ।
यहाँ इस सूचना के मद्दे-नज़र कई सवाल खड़े होते हैं।
प्रश्न नम्बर एक कि अपना चौराहा छोड़कर ढ़ाई किलोमीटर दूर शंकरमोड़ चौराहे पर अखबार पढ़ने क्यों जाते हैं अनिरूद्ध भाई।
प्रश्न नम्बर दो घड़ी से सम्बन्धित है।
और प्रश्न नम्बर तीन कि आखिर आजकल इतना चुप चुप क्यों रहते हैं अनिरूद्ध भाई।
एक लोक कथा: कर्बला का कुआँ और अली साहब
गाँव के ठीक पूरब तो नहीं कहेंगे। और पूरब तथा उत्तर का कोण भी नहीं कहेंगे। पूरब दिशा के थोड़ा बाजू में। उत्तर दिशा वाले बाजू में। ठीक पूरब अर्थात परभू बाबा के तीन मंजिले छत से, सामने देखने पर जो बहुत दूर तीन ताड़ का पेड़ दिखाई देता है। उसी में से बीच वाला पेड़ ठीक पूरब कहलाता है। सूरज उसी पेड़ के ठीक पीछे से निकलता है। अनिरूद्ध भाई का दो बीघे का खेत। धोबिन की लड़की पुष्पा- खेत की मजदूर – पुष्पा की हँसी- पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी। अनिरूद्ध भाई का खेत, कर्बला का कुआँ। कुआँ प्रसिद्ध है, सो खेत की पहचान- कर्बला वाला खेत।
खेत पास कुआँ नहीं, कुएँ के पास खेत। क्योंकि यह कुआँ तब से है, जब इस संसार में किसी भी सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। कुएँ की एक कहानी है। कुआँ में पानी नहीं खून है। कुएँ में झाँकना मना है।
बात तब की है जब गाँव में एक बार अकाल पड़ा था। सूखा। घोर अकाल। खेत के फसल खेत में खड़े खड़े ही झुलस गए। चारों तरफ कोहराम मच गया। न जाने कितने चौपाये तड़प-तड़प कर मर गए। धरती फट गई। कहीं भी चिरई-चुरूंग की कोई अवाज नहीं सुन पड़ती थी। अकाल का पता पक्षियों को पहले चल जाता है- कहते हैं रामायन चाचा।
तभी एक पागल वृद्ध भूख और प्यास से विकल इस कुएँ के पास आया था। कुआँ तब सूखा था। वह पागल वृद्ध कुएँ में कुद पड़ा(या गिर पड़ा) और तेईस दिन तक एक पाँव पर खड़ा हो कर भगवान से पानी मांगता रहा। (इस कथा की त्रासदी अब भी उस गाँव के बुजुर्गों की आँखों में देखी जा सकती है। ) उसके शब्द कुएँ से बाहर नहीं आ पा रहे थे। अस्पष्ट रूप से जो शब्द आ पा रहे थे- कुण्ड, कुन, कण या कुण्डु कुछ ऐसे ही थे। उस शब्द के मानी उन (रामायन चाचा जैसे लोगों के) आँखों में नहीं दिखते, जहाँ वह त्रासदी दिखती है। अंतत: वह वहीं , उस कुएँ में गिर पड़ा। लोग उसके दर्शन करने के लिए आते रहे। लगभग चलीस-बयालीस घण्टे के पश्चात उसके शरीर की सारी गतिविधियाँ शान्त होती रहीं और साथ साथ कुछ अस्पष्ट शब्द धीरे धीरे अशान्त होते गए।
कुएँ की अपनी एक अलग प्रतिध्वनि होती है, जहाँ शब्द काँपते नहीं, डोलते हैं। मरते नहीं, रोते हैं।
शुक्रवार की साँझ सूरज ढल रहा था। उमस कुछ और बढ़ आई थी। भीड़ कुछ और उमड़ी थी। लोगों ने बाहर से ही कुएँ में मिट्टी डालना प्रारम्भ किया। उसे उसी कुएँ में दफना दिया गया।
परभू बाबा के तीन मंजिली मकान के ठीक पीछे, बड़े बँसवार के झुरमुटों मे सूरज कहीं छिप जाता है कि उस दिन भी छिपा था। रामायन चाचा के चेहरे की झुर्रियाँ कुछ फैल सी जाती हैं- आँखें छोटी हो जाती हैं कि लगभग मूदे हुए भाव से कहते हैं- “…तब उस शाम आकाश न जाने किधर से घुमड़ते हुए काले मेघ आए थे। देखते ही देखते शाम रात में बदली थी। और तब बिजलियाँ ऐसी कड़कीं कि बस…” रामायन चाचा की आँखें भी चमक जाती हैं- “तब हम बच्चे थे”- कहते कहते बच्चों सा चहक उठते हैं, “घण्टे दो घण्टे मे लगा कि बाढ़ आ जएगा। पूरे गाँव, खेत, खलिहान, नदी-नाले, ताल-तलइया सब जगह पानी खड़ा हो गया। इस तरह क्या कहें तीन महीने तक लगातार, रातों-दिन पानी गिरता रहा । गाँव में सियार, डांगर मर-मर कर उतराने लगे। देखते-देखते महामारी फैल गई। अब आदमी की मरने की बारी थी। महामारी जानो हो? इ सब बरम के कुपित होने से होता है। पूरा गाँव त्राहि त्राहि करता उसी कुएँ के पास भागा। और इधर कुएँ मे…” हमारी आँखें प्रश्न पूछती है, “कुएँ में?”
“कुएँ में पानी के जगह खून भरा था लबालब।,” रामायन चाचा की पकी मूछों के भीतर रहस्य भरी मुस्कान थिरक उठती है- कहते हैं- “एकदम लाल टेस। खौलता हुआ।
और हम सिहर उठते थे उस कथा में।
“जादू?”
“नहीं रे बाबा खून …एकदम लाल टेस”, रामायन चाचा कहते है। “फिर सभी हाथ जोड़ कर गुहार लगाए। मनौती मांगे। खुरमा बतासा चढ़ाए और तभी सबके बीच से भंगी महाराज ने शंख फूँका और कहा कि गाँव पर दया करो हे कुण्डू महाराज हम हर साल तुम्हारी पूजा करेंगे। फिर तीन बार शंख फूँका। शंख की तीसरी ध्वनि खत्म होते होते सूरज अपना धाही दिया था।
तब से वहाँ हर साल एक मेला लगता है। कुण्डु का मेला। उस पागल, वृद्ध, बरम, कुण्डु महाराज के मृत्यु तिथि पर।
चूंकि यह तय नहीं हो पाया था कि वह पागल, वृद्ध हिन्दू था मुसलमान। इसलिए दोनों समुदाय के लोग उस मेले में बड़े सच्चे दिल से सरीक होते हैं। आखाड़ा जमता है। करखा खेला जाता है। दुकानें लगती हैं।
हिन्दू समाज के प्रमुख परशुराम बाबा और मुसलिम समाज के अली साहब, दोनों इस कुएँ के आर पार बैठते हैं। आमने सामने। धोती और गंजी पहने परशुराम बाबा तथा सफेद लिवास में काला गमछा ओढ़े अली साहब। अली साहब मदरसे के मौलवी हैं। सभी दीन-दुखिया मेले के दिन आते हैं। अपनी अपनी समस्या अली साहब या परशुराम बाबा में से, जिससे चित्त फरियाता, उससे बताते हैं। दोनों प्रमुख अपने अपने ग्राहकों की समस्या अपने अपने ढंग से कुएँ में झाँक कर पूछते हैं। कुआँ निदान बतलाता है जो सिर्फ उन्हीं दोनों को सुनाई पड़ता है। और वे लोग अपने अपने ग्राहक को निदान बतला देते हैं।(यहाँ कोई भेद भाव नहीं है। किसी भी जति का आदमी किसी भी प्रमुख से अपना प्रश्न पूछ सकता है।)
बसंती देवी को लड़का नही हो रहा था। पशुराम बाबा ने कहा कि तुम्हारा कोई संतान जोग नहीं है। वह घूम फिर कर आई और परशुराम बाबा से नजरें चुरा कर यही समस्या अली साहब से पूछी। अली साहब ने कहा कि अल्लाह के करम से तुम्हे एक नेक और होनहार औलाद होगा। बिरजू उसी वरदान का पका फल है। गाँव का सूचना विभाग उसी के जिम्मे है। अली साहब बहुत पहुंचे हुए आदमी हैं। आदमी नहीं देवता हैं ।
गई शाम मेला खतम होता है। सभी अपने अपने घर चले जाते । अली साहब वहीं बैठे रहते हैं । रात को जब बारह का गजर होता है । अली साहब कुएँ में घूस कर खून से नहाते हैं । और नंगे बदन मदरसे में वापस चले जाते हैं ।
“जादू?”
“नहीं रे सच्ची । खून से लाल टेस ।“
मदरसे में वापस आते वक्त यदि कोई नंगे बदन उस डगर पर लेट जाये, और अली साहब उस लेटे हुए आदमी पर पाँव रख दें। तो समझो कि अली साहब का आशीर्वाद उसे मिल गया । लेटने वाले की मन की मुराद पूरी हो जाती है ।
यह बात गाँव के सभी लोग जानते और मानते हैं। बिरजू को छोड़कर। बिरजू का मानना है कि यह सब बात गलत है, एक दम गलत ।
एक बार जब रात को बिरजू संग्रामपुर से नाच देखकर अकेले घर लौट रहा था । आधी रात हो गई थी । कहीं एक भी चिरई-चुरुंग तक नहीं थे । सिर्फ झिंगूर की झिझियाने की आवज थी उस विराने में और रास्ते में था वह कर्बला वाला कुआँ । तब बहुत डर लगा था बिरजू को उस दिन । फिर भी । कुएँ में खून? कैसा लगता है ? रात का विरान पहर कि मन के विराने में एक और विरान रात । सच की रात से झूठ की रात ज्यादा विरान थी। झूठ की रात में भय था तो सच की रात में धोखा । झूठ की रात में खून तो सच की रात में कुआँ । सच की रात में बिरजू होता था , झूठ की रात बिरजू में होती थी । हृदय गति तेज हो जाती । जोर जोर से हाँफने लगता । भीतर की रात जब बाहर निकलती तो बाहर की रात और काली हो जाती। और वह और काली रात को निगलने लगता । धौंकनी और तेज हो जाती । भीतर से लेकर बाहर तक एक काली रात विषैले धुएं की तरह चारों तरफ तीरने लगती । तब साँस लेना भी मुश्किल काम लगता था । साँस भी नहीं ले पा रह था बिरजू । बेतरह डर गया था ।
“जादू?”
“नहीं रे बाबा आगे देखो ना”
वह कुएँ में झाँका , हालांकि झाँकना मना था । फिर भी झाँका । कुएँ के भीतर बहुत अंधेरा था सो कुछ नहीं दिखा ।
उसे जोर की पेशाब लगी थी । भय की पेशाब । मन में शरारत सुझी कि कुएँ में पेशाब कर परीक्षण किया जए । वह कुएँ में पेशाब करता रहा और मन ही मन अपने डर के साथ साथ एक अंधविश्वास को फाड़ता रहा । कुएँ में पानी नहीं था ।
“खून?”
खून भी नहीं, कुआँ सूखा था बिलकुल ।
कुएँ में न पानी था न खून । हाँ कुआँ गहरा जरूर- यह सिर्फ बिरजू की दलील है और बहुमत उसके पक्ष में नहीं है ।
अनिरूद्ध भाई बिरजू जैसे बेहुदा लोगों पर विश्वास नहीं करते । अब तो बस कुण्डु के मेले का इंतजार है। इस बार प्लान बना लिये हैं कि जा कर मेले वाले रात, नंगे बदन , मदरसे वाली डगर पर लेट जाएंगे और मन में मुराद कि – या कुण्डु महाराज या तो हमे धोबी बना दो या पुष्पा को भूमिहार ।
(कहानी जीवन दर्शन नहीं बल्कि जीवन का एक दर्शन होती है । संपूर्ण जीवन का सिर्फ एक दृश्य , एक पहलू , एक पहर । दूसरे दृश्य , दूसरे पहलू , दूसरे पहर की दूसरी कहानी)
पुष्पा ने आज तक अनिरूद्ध भाई से कुछ नहीं कहा सिर्फ ताक कर हँसती है । अनिरूद्ध भाई भी हँस देते हैं । वह चली जाती है । अनिरूद्ध भाई सोचने लगते हैं ।
एक दिन सुबह सुबह उठकर अनिरूद्ध भाई झांगा से दुआर बुहार रहे थे कि मुँह में मोटा सा नीम का दातुन लिये अवधेश बाबू ने कहा, “जा कर लिलवतिया से कह दो कि वो और श्रीकांतवा जाकर कर्बला वाले खेत में सोहनी कर दे । बीया गिराना है दो चार दिन में ।
“काहें, धोबी लोग अब सोहनी नहीं करेगा का”, अनिरूद्ध भाई ने कहा ।
“ना ऊ सब नहीं करेगा, खेत में बइठ के खाली खाली बतिआता है सब”, तेवर कड़ा था । अवधेश बाबू अनिरूद्ध भाई के पिता हैं । गाँव के प्राइमरी स्कुल के शिक्षक पद से रिटायर गिद्ध। दिन भर टर्र टर्र करते रहते हैं।
“आ लिलवतिया दिन भर खलिहान में बइठ के बीड़ी फूँकती है, ऊ ठीक है ” अनिरूद्ध भाई ने जबाब दिया । आवाज मे मर्दाना पन था । आँखे झुकी थी । मानो सत्तर-अस्सी के दशक में सिलवर स्क्रिन पर चल रहे बाप बेटे का शीत युद्ध । अनिरूद्ध भाई अमिताभ बच्चन और अवधेश बाबू दिलीप कुमार या संजीव कुमार ।
जो बुझाय सो करो कहकर अवधेश बाबू अंतरध्यान हो गए ।
अनिरूद्ध भाई दुआर बुहार कर उठे । मुँह और मूड दोनो साफ किये । साइकिल निकाले । और चल दिये सत्यदेव चौधरी के दुआर पर । धोबी टोला जाने के नाम पर अनिरूद्ध भाई इस कदर खुश होते हैं, मानो ससुराल जा रहे हों ।
पुष्पा की माँ से मुखातिब होते हुए उन्होंने पूछा कि पुष्पा कहाँ है?
पुष्पा की माँ अब किसी के खेत मे काम नहीं करती । नहीं हो पाता है । कम देखती है । कम सुनती है । मुँह है, बहुत बोलती है । खूब गरियाती है । गाँव का गाँव तबाह है मारे खुशी के । बच्चे खुश हो कर गालियाँ सुनते हैं और बड़े मंत्रमुग्ध हो कर । वह अनिरूद्ध भाई की इज्जत करती है । गाँव में भूमिहारों को बाबू साहब कहा जाता है । सो वह उन्हें बाबू साहब कहती है । खड़ी हो गई । झाडू से दुआर बुहार रही थी । हाथ चमकाकर धीरे से बोली- उधर ही खेत में गई है , का बात है?
“सोहनी का बात करना था”, अनिरूद्ध भाई कौवे की तरह गर्दन उठा उठा कर इधर उधर ताक रहे थे ।
“ठीक है हम कह देंगे”, पुष्पा की माँ ने कहा ।
अनिरूद्ध भाई भारी मन से “ठीक है” कह कर किसी टीले की तलाश में आगे बढ़ने लगे- साइकिल पर चढ़ने के लिए ।
साइकिल पर सवार अनिरूद्ध भाई घर आने लगे कि रास्ते में, हाथ में हसिया लिए पुष्पा आती हुई दिखाई पड़ी। पुष्पा अनिरूद्ध भाई को दूर से देखकर हँस दी । अनिरूद्ध भाई को हँसी नहीं आई । दया जैसा कुछ भाव बह रहा था । वे साइकिल से कुद कर नीचे उतर गए। कुद कर ही उतरते हैं। आराम से नहीं उतर पाते । पुष्पा रूक गई ।
“ऐ रे पुष्पा एक बात है”, अनिरूद्ध भाई ने बड़ी आत्मीयता से कहा ।
पुष्पा ने सवाल पूछने की दिशा में गर्दन उठा दिया और साइकिल के हैण्डल पर हँसिये से दो बार ठोक दिया…टून्न टून्न । मन में बड़ी ग्लानि भरकर अनिरूद्ध भाई ने कहा कि कर्बला वाले खेत में सोहनी है ।
यदि अनिरूद्ध भाई ही घर के मालिक होते तो नहीं कहते । बड़ा दुख होता है , कहने में, पुष्पा से कोई काम कराने में । बड़ी नाजुक चीज है पुष्पा सिर्फ रानी बनने के लायक है- भोरे भोरे उठकर, कम पत्ती और ज्यादा चीनी वाली चाय बनाने लायक । पुष्पा ने खड़े खड़े वहीं जोर से छींका और दूसरे छींक के लिए आसमान में ताकने लगी। अनिरूद्ध भाई को यह बहुत बूरा लगा कि ऐसे ही छींकती रही तब तो हुई शादी । लोग क्या कहेंगे कैसी बेलूर, बेशहूर है । पुष्पा अभी मुँह बाये ऊपर आशमान ही ताक रही थी । दूसरी छींक नहीं आई।
“चाची से बोले हैं”, पुष्पा ने हाथ से घण्टी बजा दिया । अनिरूद्ध भाई ने घण्टी पर हाथ रख दिया । पुष्पा की चाची पुष्पा के साथ काम करती थी ।
“ना तू बोल देना”, अनिरूद्ध भाई ने घण्टी से हाथ हटा लिया ताकि पुष्पा फिर घण्टी बजाये । इस बार उसके हाथ पर हाथ रखेंगे।
ठीक है कहकर पुष्पा हँस दी । फिर आँखें झुका कर कही कि एक बात कहना था ।
अनिरूद्ध भाई ने बड़ी आत्मीयता से पूछा- क्या बात है , बोल ना ।
कब खेत में जाना है?- पुष्पा फिर हँस दी । यह पुष्पा के मुँह से मेल खाती हुई हँसी नहीं थी । पुष्पा पहली बार मजदूर लगी , और उसकी हँसी किसी पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी से हट कर , उसकी रंगहीन चूड़ियों सी निरीह , बेसूरी और बेजान लगी । एकदाम लाचार ।
“नहीं-नहीं बात बोल तू , क्या बोल रही थी?” अनिरूद्ध भाई जहाँ पुष्पा की हँसी पर पागल हुए जाते थे । आज अधीर हो गए ।
“बोल न पुष्पा, तू क्या बोल रही थी?”
“कुछ नहीं, यही तो…”, पुष्पा ने कहा । अनिरूद्ध भाई के इस विचित्र स्थिति के बारे में पुष्पा को हींग भर भी अंदेशा नहीं था ।
“नहीं-नहीं बोल, मुझसे छुपाएगी पुष्पा?”, मन तो हुआ कि पुषा का हाथ पकड़ लें और कहें कि तू मुझे अपना नहीं समझती पुष्पा।
“बात ए थी कि हमको दस रुपिया का दरकार था”, फिर रूक कर बोली , “मजदूरी से काट लीजिएगा।”
यह दूसरा वाक्य अनिरूद्ध भाई के अंतस तक धस गया । पुषा को रूपिया दूँ और मजदूरी से काटूँ? क्या आज तक मुझे यही समझी है पुष्पा? अनिरूद्ध भाई ग्लानि से भर गए । उनके पास पैसे बिलकुल नहीं थे ।
पुष्पा का रूपिया माँगना अच्छा लगा । इस तरह से माँगना कत्तई अच्छा नहीं लगा ।
“ठीक है, अभी तो नहीं है । तुम रूको, मै ला कर देता हूँ । कब तक चाहिए?”, अनिरूद्ध भाई ने यह बात पुष्पा से इस तरह कही मानो दो गरीब दम्पति आपस में अपने दुख-सुख बाँट रहे हों कि घोसला टूट जाने पर दो पक्षी दम्पति आपस में नए आवास की चिन्ता कर रहे हों कि जेठ की विरान दुपहरी में चल रहे प्रेमी-प्रेमिका कहीं छायादार वृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम करना चाह रहे हों और प्रेमी लाख प्रयत्नों के बावजूद वह वृक्ष नहीं खोज पा रहा हो…
“खेत में कब जाना है?” पुष्पा ने पूछा।
पुष्पा ने यह बात इस प्रकर से कही कि अनिरूद्ध भाई को लगा मानो वह यह समझ रही है कि मै उसे पैसा देना नहीं चाह रहा हूँ । अनिरूद्ध भाई पुष्पा को निर्निमेष ताकते रहे । आँखें सजल हो गईं ।
“कब?” पुष्पा ने फिर पूछा ।
“कल सुबह , खूब सबेरे”
एक टीला देख कर अनिरूद्ध भाई साइकिल पर सवार हुए । साइकिल ने अपनी दिनचर्या पूरी की । अनिरूद्ध भाई ने पीछे मूड़ कर देखा कि साइकिल फिर लड़खड़ा गई । एक स्वाभाविक हँसी पुष्पा हँस दी । अनिरूद्ध भाई भी हँसे , जो हँसी दया और दीनता से बनी थी ।
अनिरूद्ध भाई ने घर आकर चारों तरफ जद्दो जहद किया । रुपया नहीं मिला । अंतिम उपाय बचा था जो क्षण भर के लिए सफल होता था- गिद्ध के मुँह से बैल का मांस चुराना अर्थात बाप के जेब से रुपया काढ़ना । मास्टरी के पद से रिटायर व्यक्ति के पास कड़कड़िया नोट नहीं होता सो कुर्ता के नीचले जेब में झुलता खुदरा सात रुपया ही था । वही लेकर चल दिए । सात रुपये ही लेकर जाने से अनिरूद्ध भाई के मन में ग्लानि तो बहुत हो रही थी । साइकिल पर चलते-चलते एक जगह ब्रेक लग गई और एक बात मिजाज में आई जो पीपल के नीचे निश्चिन्त बैठ कर सोचने वाली थी । वह यह कि क्या पुष्पा प्यार का मतलब जानती होगी ।
जानती होगी पुष्पा कि शादी के पहले भी एक प्रेम होता है, जो जरूरी होता है ।
…वह प्रेम किसी दूसरे पुरुष के साथ होता है ।
…प्रेम में आई लव यू बोला जाता है ।
…प्रेम में छुप-छुप कर मिलना पड़ता है ।
…प्रेम में एक प्रेम पत्र होता है ।
…प्रेम पत्र में दिल का छोटा बड़ा फोटो बनाया जाता है ।
… प्रेम पत्र वाले दिल के छोटे बड़े फोटो को छुआ जाता है ।
…दिल के छोटे बड़े फोटो को चुमा भी जाता है ।
…प्रेम में गले मिला जाता है ।
… प्रेम में झूठ बोला जाता है ।
…प्रेम में हाथ पकड़ा जाता है ।
…प्रेम में हाथ पकड़ कर प्रेम गीत गया जता है ।
…प्रेम में पकड़े गए हाथ को चुपके से चुम लिया जाता है ।
…प्रेम में गुलाब का फूल दिया जाता है।
…प्रेम में प्रेमी प्रेमिका को जूड़ा मे लगाने वाला रब्बड़ देता है ।
…प्रेम में नये नये कपड़े पहने जाते है ।
… प्रेम में मेला घुमने जया जाता है ।
…मेले में जलेबियाँ खाई जाती है ।
… और जो नहीं किया जाता वह यह कि प्रेम में छींका नहीं जाता ।
अनिरूद्ध भाई जब सात रुपये लेकर पुष्पा के घर पहुँचे तो खुद को बड़ा सस्ता पा रहे थे- पर मन में एक करिबी का एहसास जरूर था । पुष्पा घर के दरवाजे पर बैठी थी । बीच में । एक पाँव चौखट के इस पार दूसरा उस पार । बीचो-बीच में बैठी थी । जाड़े का दिन था । देह घाम लोढ़ रहा था । धूप अच्छी लग रही थी । पुष्पा अच्छी लग रही थी- बेफिक्र । उनको देखते ही खड़ी हो गई ।
“का बात है भइया”
“वो, तू रुपिया नहीं माँगी थी”
“हाँ, माँगी थी”
अनिरूद्ध भाई ने जेब में हाथ डाला । ऊँगलियाँ पाँच और दो के सिक्के को छू गईं । मन में फिर वो ग्लानि वाला भाव घुला । हाथ में पैसा लेकर आश्चर्य नजरों से उन्होंने पैसे को देखा ।
“क्या हुआ भइया”
“लगता है तीन रुपये कहीं गिर गये । …खैर ले काम चल सके तो चला ले पुष्पा”
“ठीक है, हो जाएगा”
“खुश है तो...”
पुष्पा हँस दी । अनिरूद्ध भाई का यह वाक्य पुष्पा को अजीब तरह से लगा । पुष्पा लजा गई । मन था बहुत बातें करने का पर जगह और समय दोनो अच्छा नहीं था ।
सात रुपये देकर लौट रहे अनिरूद्ध भाई पुष्पा को आज अपने बहुत करीब पा रहे थे । और , साइकिल पर चलते चलते सोचने लगे कि कल खेत में पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करेंगे ।
( पाठक वृंद को याद रहे कि कल कर्बला वाले खेत में पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करेंगे अनिरूद्ध भाई )
पुनर्जन्म: एक सत्यकथा
इस प्रेम मोहब्बत के दरमयान एक और चीज थी जो अनिरूद्ध भाई को भीतर ही भीतर साल रही थी । अनिरूद्ध भाई को अपनी दीनता, अपनी हालत पर आज बहुत दया आ रही थी । एक घड़ी जिसे अनिरूद्ध भाई ने छह महीने पहले गनेशस्थान मेले से पचास रुपये में खरीदा था, उसे आज तक चुरा कर बाँध रहे हैं । किसी तरह गुणा-भाग करके चौबीस घण्टे में एक रुपया उपराजते हैं, तो शान से , रामाधार के होटल में एक कप चाय पीते हैं । जिसके ऊपर जान देने की सोच रहे हैं –दिल तो दे ही चुके हैं- उसे दस रुपये तक नहीं दे पाते । स्साला… यह भी कोई जिन्दगी है । अब भान हुआ कि नौकरी करनी चहिए । येन केन प्रकारेण ।
१. गाँव से भाग कर नौकरी करना (इसमे प्रमुख है गाँव से भागना)
२. आत्म हत्या के लिए जहर खाना ।
३. और पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करना ।
तीनो का शुरुआती कण्डिशन बड़ा खतरनाक है । एक आम आदमी के लिए दूसरा और अनिरूद्ध भाई के लिए पहला और तीसरा काम एक समान है ।
गाँव से भागना हो तो कैसे भागें, क्या क्या समान लेकर भागें । कितना रुपया लेकर भागें । किससे बता कर भागें । किससे नहीं बता कर भागें । और आखिर में भागें तो कहाँ भागें ।
जहर अभी खायें कि कल खायें कि न खायें । मरने के बाद क्या होगा । कौन रोएगा । कौन क्या कहेगा । माँ रोएगी , कौन चुप कराएगा ।
पुष्पा से क्या कहें ? पहले हाथ पकड़ें कि पहले उसे देख कर आँख मारें कि उसे ताक कर हँस दें कि आई लव यू बोल दें कि खेत में पटक कर चुम्मा ले लें ।
पहले घर से भगोड़ों या नौकरी करने जाने वालो के लिए एक ही स्टेशन था- हावड़ा स्टेशन । अब इस नई पीढ़ी ने दिल्ली , गुजरात की तरफ रुख किया है । तो चले आए गुजरात के कर्कश करातों के बीच अनिरूद्ध भाई भी वेल्डर बनने के लिए ।
( यहाँ पाठक गण एक बात मान लें …या कल्पना कर लें )
-जादू?
-नहीं रे बाबा सच्ची
-एकदम सच्ची?
-नहीं रे सो सो
-फिप्टी फिप्टी
-चल
मान लीजिए अनिरूद्ध भाई अनिरूद्ध भाई न हो कर कुछ और होते- चंदन , मंटु , नीरज कुछ भी । …उनके पास साइकिल न हो कर मोटर साइकिल होती ।
…यह गाँव गाँव न होकर शहर होता ।
…पुरानी नहीं , नई फिल्में होती ।
…सारी लड़कियों के कपड़े और हँसी , नई हीरोइनों की तरह होती ।
… सब कुछ नया होता ।
…नये लोग होते ।
… नई बातें होतीं ।
… पिछली हर बात परम्परा और इस बदले हुए परिवेश की हर बात अप-टू-डेट लगती ।
और इस बदले हुए परिवेश में, रात को टी.वी. पर फैशन शो देखते हुए अनिरूद्ध भाई को लगता कि यह उनका पुनर्जन्म है । या यूँ कहें कि सारी चीजें वह नहीं होती जो है , बल्कि सारी चीजें वह होती जो हम ऊपर से सोच रहे हैं ।
और इस तमाम ऊहा-पोह में सिर्फ पुष्पा वही होती जो वह है तो क्या होता?
हाँ तो हम कह रहे थे कि पुष्पा के साथ , कल , कर्बला वाले खेत में प्रेम का श्रीगणेश करेंगे अनिरूद्ध भाई।
इस बदले हुए परिवेश की चर्बी पर भर रात एक खुराफत नाचती रही और अनिरूद्ध भाई गम्भीर हो गए कि आखिर वे पुष्पा से चाहते क्या हैं और पुष्पा उनके बारे में क्या सोचती है । कहीं वह उन्हें अमीर , गम्भीर और शरीफ तो नहीं समझती है न? एक दम गलत बात है कि वह भी उन्हें वही समझे जो गाँव वाले समझते हैं।
यदि अमीर समझेगी तो पास नहीं आयेगी- वहाँ समानता नहीं होती। गम्भीर समझती होगी तो बात करने में हिचकेगी और कहीं यदि शरीफ समझती होगी तो प्यार नहीं करेगी ।
…कहीं पुष्पा यह तो नहीं समझती होगी कि शरीफ लोग प्यार नहीं करते, इश्क नहीं करते, किसी लड़की की तरफ नहीं ताकते, किसी स्त्री को नहीं छूते , पत्नी को भी नहीं । सिर्फ अमीरों का पोशाक पहन , गम्भीरता से कुरसी पर बैठ कर किताब पढ़ते हैं और शराफत से पत्नी से चाय मांगते हैं और बच्चा पैदा हो जाता है । अमीर लोग सम्भोग नहीं करते- सिर्फ पत्नी के पास सोकर किताब पढ़ते हैं और बच्चा पैदा हो जाता है ।
यदि यह सब समझती होगी पुष्पा तो कोरा बकवास समझती है ।
ऐसी ही कुछ-कुछ अवधारणाएं अनिरूद्ध भाई की भी थी पर इस बदले हुए परिवेश ने उन सारी अवधारणाओं को खारिज़ कर दिया है । और, इन अमीर , गम्भीर और शरीफ लोगों का एक नया खाका सामने रखा है । तब से यह सब होने से अपने आप को इंकार करते रहे अनिरूद्ध भाई ।
हाथ में हसिया लिये, घुटनों तक सलवार उठाए , हाथ की बेमेल चुड़ियों को कोहनी तक उठाए और वक्ष के उभारों को गंदे गमछे से ढके , जो लड़की खेत में काम कर रही थी - अनिरूद्ध भाई को समझते यह देर न लगी कि वह पुष्पा ही है । अनिरूद्ध भाई वहीं कुएँ के पास पेड़ के नीचे बैठे रहे । मन में तमाम भाव बन रहे थे , बिगड़ रहे थे - जो कि अक्सर शराब के नशे में होता है । विचारों का एक समुद्री तुफान आता है और शान्त हो जाता है – मस्तिष्क कोई स्थायी विचार नहीं बना पाता ।
इस बार लग रहा था , मानो कोई पुरानी फिल्म की हीरोइन ही खेत मे काम करने का अभिनय कर रही है ।
जहाँ शब्द यदि चुप से बेहतर न हों तो वहाँ चुप रहना ही बेहतर होता है । अनिरूद्ध भाई के मन में हुआ कि इस प्रेम की शुरुआत प्रेमपत्र से हो तो कैसा हो ? विचार काफी सतही था पर प्रेम में विचारधारा की जगह ही कहाँ होती है । सो प्रेमपत्र की बात सोची गई । प्रेमपत्र की पूर्व तैयारी नहीं थी , सो कागज या लेटर पैड का होना… । सो होमियोपैथ के दवाई वाले खाम पर पत्र लिखना प्रारम्भ हुआ । लिखने के लिए बातें बहुत थीं । भाव कुछ स्थिर और विस्तृत हो रहे थे ।
…सरिता की शीतल धारा सी अनुरागी चित्त , जब गम्भीर विचारों को शुष्क आवाजों से प्रकट करता है …सुन्दरता का बखान …बखानों के दरमान एक तुच्छ मुस्कान …दिल में उठे जजबातों को एक नई दिशा देकर हया के पर्दे को नये अंदाज से झुकाना …मासूम चेहरे पर शरारती बातों का होना …छोटी-छोटी बातों पर रुठना …रुठने के दरमायान खुश होना …छोटी-छोटी बातों पर संवेदनशील होना …संवेदनशील बातों पर हँस देना …समस्या में शावक सा होना …हर बात में एक क्यों का होना …अपनी चाहत में एक चाह का होना या अपने चाह में एक चाहत का होना- अनिरूद्ध भाई बैठे-बैठे ऐसे ही बहुत कुछ सोच रहे थे । लिख कुछ भी नहीं रहे थे । उन्हे ये सारी चीजें अच्छी लग रही थीं । अच्छी लगने वाली वस्तु या व्यक्ति में अच्छाइयों का होना अच्छा ही लगता है । जेठ की दुपहरी का ढलान था । अब शाम होने वाली थी । शाम के बाद एक रात । जेठ की प्रचण्ड धूप के बाद एक शुष्क रात का होना अच्छा ही लगता है और उस रात में बरसात का होना ? जनाब आप ही बतायें कि कैसा लगता है ?
उस खाम पर कुछ नही लिखा । एक दिल का फोटो बना दिया अनिरूद्ध भाई ने । दिमाग की फ्रिक्वेंसी एक बार दिल में धसे तीर की तरफ घुमी पर आज सोचने का समय नहीं था । खड़े हुए और चलने के क्रम में पेड़ पर चढ़ रही एक जंगली लता से एक पत्ता तोड़ लिया अनिरूद्ध भाई ने । जिसकी सूरत हू-ब-हू उस दिल की तरह ही थी जो उन्होंने उस दवाई वाले खाम पर बनाया था । अपने ही चित्रकारी पर हँसी आ गई मेरे एम. एफ. हुसैन को । अच्छा हुआ कि दिल बनाया और पत्ता बन गया , पत्ता बनाने जाते तो शायद जहाज भी बन सकता था- पानी वाला जहाज ।
क्लासिकल प्रेम के दृष्टिकोण से प्रेमपत्र को हटाकर पत्ता देकर प्रेम का इज़हार करने की बात सोची गई । चलते चलते कुएँ को देखा अनिरूद्ध भाई ने । नंगा लेटकर वरदान मांगने के अलावा बिरजू की दलील भी दिमाग में घुम गई । अनायास ही कुएँ में झाँक लिया जो कि खाली था । सूखा था । कुएँ को देखकर मन में दया आ गई । निर्निमेष ताकते रहे उस कुएँ को अनिरूद्ध भाई । छुपा लेना चाहते थे दिल के किसी कोने में एक प्रेमपत्र , एक पत्ता , एक जादू और एक पुष्पा की हँसी की तरह इस कुएँ को – जो कई बार बचा लेता है गाँव को आत्महत्या करने से , छुपा लेता है अपने में पूरे गाँव को , खेत को, खलिहान को, आकाश को, रामायन चाचा की झुर्रियों को, पुष्पा , पुष्पा की हँसी और उस गाँव की तमाम बूढ़ी आँखो की त्रासदी को - शहर से आ रही एक जादुई शहरी हवा के छूने से पहले ।
रामायन चाचा के बेतरती मुछों के भीतर से फुटती है एक रहस्यमयी हँसी – जादू के रुप में एक कुआँ । एक जादू, एक कुआँ ।
“जादू का कुआँ?”
“नहें रे बाबा … कुएँ का जादू”
“एक कुआँ, एक जादू?”
“नहीं रे… कुएँ में जादू, जादू में कुआँ”
बड़ी सरगरमी के साथ गाँव शहर बनने के फिराक में लगा है । अमीर , गम्भीर और शरीफ बनने के फिराक में जो कि बहुत खतरनाक बात है ।
पुष्पा सुस्ता रही थी । उनको देखते ही खड़ी हो गई । हँस दी । अनिरूद्ध भाई बढ़े जा रहे थे । इस बार की हँसी में वो अलहड़ता नहीं थी ।
- “क्या पुष्पा , कटनी हो गई?”
- “नहीं , सुस्ता रहे हैं”, पुष्पा बैठ गई ।
“दे पुष्पा, तब तक हम काटते हैं”
“हाथ कट जाएगा”
“नहीं कट जयेगा”
“कट जायेगा , बस… कल भर की तो कटनी है”
अनिरूद्ध भाई वहीं डरार पर पुष्पा के पास बैठ गए । पुष्पा उठ कर हँसिया उठा ली ।
“बैठ ना पुष्पा, कल तो हो ही जाएगा”
“आज काटूँगी तब कल होगा, नहीं तो परसो होगा”
“ठीक है… सुन तो…”
“क्या”
“एक चीज देनी है , हाथ खोल”, पुष्पा ने हाथ बढ़ा दिया । अनिरूद्ध भाई ने उस पर मुड़ा हुआ सौ का एक नोट रख दिया ।
“ये क्या है?”
“रुपिया है”
“क्यो?”
“एक बार तू मांगी नहीं थी , बहुत पहले और मेरे पास दस रुपये भी नहीं थे । आज है । मै कमाता हूँ न पुष्पा ।“
“ई हम नहीं ले सकती”
“क्यों?”
“ऐसे ही”
“इसके बाद मै तुझसे कुछ नहीं कहुँगा , पर ले लेती तो अच्छा लगता”
पुष्पा हाथ में रुपिया लिये अनिरूद्ध भाई को ताकती रही । अनिरूद्ध भाई सिर उठाये तो उनकी आँख में एक गौरैये की आँख दिखी – जो किसी बरगद की सबसे ऊँची शाख पर, बरसात में , अपने घोसले में अपनी प्रेमिका-गौरैया के पास बैठा हो और बेबेसी से बाहर भींगते हुए लोगों को देखता हो और अपने घोसले की आयु और अपनी जिन्दगी और अपने अण्डों के बारे में सोचता हो ।
“एक बात कहूँ पुष्पा , तू बूरा तो नहीं मानेगी न?,” अनिरूद्ध भाई ने पुष्पा से पूछा ।
बात के समर्थन में पुष्पा ने गर्दन उचका दिया । पुष्पा चुप थी ।
“मैं तुझसे प्यार करता हूँ पुष्पा”, अनिरूद्ध भाई पुष्पा की आँखों में देख रहे थे । उस हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार थे , जिसकी शुरुआत पहले आँखों से ही होती है ।
“मुझे मालुम है”, पुष्पा की आवाज में बहुत शुष्कता थी- आंसुओं के कार्य शब्द कर रहे थे ।
पुष्पा का हाथ थामे अनिरूद्ध भाई खेत के डरार पर बैठे रहे । पुष्पा निर्वेद रूप से बैठी रही- अनिरूद्ध भाई के हवाले में । भावों के आदान-प्रदान करने वाले शब्द असमर्थ हो चुके थे । आँखें स्थिर हो चुकी थीं ।
“पुष्पा तू मुझसे शादी करेगी?”, इस पूरे शान्त वातावरण में अनिरूद्ध भाई का यह शब्द पुष्पा को ऐसे जान पड़ा मानो दूर आकाश में, चिड़ियाँ आपस में कतार बनाकर उड़ रही हो , और बातें कर रही हों – जिसकी आवाज यहाँ तक नहीं सुनाई पड़ती सिर्फ महसूस की जा सकती है ।
“अगले दिन सूरज के सर पर चढ़ने से पहले यह कटनी कर लेनी है”, मानो अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए दो गौरैये – पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका – आपस में बातें कर रहे हों ।
“न वो अगला दिन होगा, न ये सूरज होगा, न वो प्रचण्ड धुप होगी पुष्पा”, पुष्पा की हथेली को अपने दोनो हाथों में छुपाये एक पागल की भाँति कह रहे थे अनिरूद्ध भाई , “ दूसरा दिन, दूसरा सूरज और एक शुष्क बयार में इन पंछियों के तरह उड़ते हुए हम होंगे पुष्पा”, अनिरूद्ध भाई ने पुष्पा की हथेली को चूम लिया ।
पुष्पा की आँखे सजल थीं ।आँखों में उगते हुए सूरज सी धाही थी । पुष्पा के मुख पर कुछ-कुछ हँसी जैसे भाव थे । पुष्पा की हँसी को अनिरूद्ध भाई पहली बार इतने करीब से देख रहे थे । वे उस हँसी को छू सकते थे । पकड़ सकते थे । एक रोएँदार हँसी हर कहीं उड़ रही थी , अनिरूद्ध भाई उस पर फूँक सकते थे ।
कुछ-कुछ अंधेरा हो रहा था । पुष्पा अनिरूद्ध भाई को देख रही थी । अनिरूद्ध भाई ऊपर आकाश में पंछियों को अपने घोसले की ओर लौटते हुए देख रहे थे ।
पुष्पा के लिए यह सब एक सुन्दर दृश्य था । सुखद स्वप्न ।
अनिरूद्ध भाई के लिए एक सुन्दर राग । बेमेल और मद्धिम चूड़ियों की खनक- सूरबद्ध , लयबद्ध , नूरबद्ध…
“सच्ची में?”
पनिआयी आँखें स्मृतियों की खोह में धँसती चली जाती हैं- और हँसते हैं बूढ़े अनिरूद्ध भाई
-“नहीं रे… जादू”