बुधवार, 23 मई 2012

फुर्सत

फुर्सत कहानी
रविन्द्र आरोही

मेरे पास बीस रुपये का एक नोट और बहुत सारा खुदरा समय था।
साइकिल चलाते हुए, एक खाली जगह देख कर मैने शर्ट की बाईं जेब दाहिने हाथ से टटोली। नोट हिफाजत से था। खाली जगह पर नीम का पेड़ था। नीम का पेड़ वर्षों से एक ऊब के साथ उसी जगह खड़ा था। पेड़ इतना भरा-पूरा था कि साँझ वहां देर तक नहीं ठहरती थी। उस रास्ते से गुजरने वाले अक्सर वहां तक आ कर थक जाते। दो थके लोग अलग-अलग, पेड़ के पास एक साथ बैठे थे। मौसम की बात करना उनमे से किसी को नहीं आती थी। एक ने मुझे अपनी जेब टटोलते देखा और फिर थके मन से उसने अपनी घड़ी देखी।
साइकिल पर पॉकेटमारी का भय नहीं होता। नीम के पेड़ के आगे एक खाली मैदान था। खाली मैदान में हवा तेज-तेज चलती थी। तेज तेज साइकिल चलाने से हवा में शर्ट फड़फड़ाता था। नोट उड़ जाने का भय था।
मैंने कभी दूध के कुल्ले नहीं किये। हवा मे नोट उड़ते नही देखा। बस, रेलगाड़ी या ऐसे भी कहीं, कभी मेरी पॉकेटमारी नहीं हुई। नई फिल्मों के शुरुआती दौर में, जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे, बसों में एफ.एम. का जमाना नहीं था, बसों के रंगीला ड्राइवर टेप में “सात समुनदर पार मैं तेरे पीछे-पीछे आ गई” बजाते थे, तब के सिझते दिनों में पॉकेटमारी खुब होती थी। हमेशा से पॉकेटमार मुझे एक छोटा जादूगर लगते- बावजूद इसके कि मैने कभी पॉकेटमार नहीं देखे। तब तक छोटा जादूगर भी नहीं देखा था- पर दोनों की कल्पना एक सी लगती थी।
डर का रंग हमेशा से दुख जितना काला नहीं था- इन्हें हम हर कहीं अलग-अलग पहचान सकते थे।
मैं जिस भाड़े के मकान में रहता था। वह एक कमरा और सामने बरामदा वाला मकान था। बरामदे में ही खाना बनाना, बर्तन माजना और नहाना होता था। घर के आगे कोई पेड़ नही था इसलिए वह जगह सूनी-सूनी लगती थी। चार अलग अलग किरायेदारों के बीच का एक कॉमन लेट्रीनरूम मेरे घर के पिछवाड़े था। घर की दोनों खिड़कियां उसी तरफ खुलतीं यदि खुलतीं तो रविवार को मेस्तर आता था। बुधवार तक पूरा घर गंधाने लगता। बाहर से आने वालों को यह गंध और खारी लगती। शनिवार तक यह गंध इतनी बढ़ जाती कि उस रात मरने, खोने, डूबने, पीटने, और रेलगाड़ी के छूटने और उसके पीछे पटरियों पर बेतहासा भागने जैसे बूरे-बूरे सपने आते। खिड़कियां हमेशा बंद रहतीं सो पूरे घर मे अंधेरा और नोना लग गया था। अंधेरा कमरे में पीलापन लिए हुए था। चीजें इतनी ठंढी कि छुट्टी के दिन, दिन के अंधेरे मे सोये-सोये लगता कि मेरे आंत का ऑपरेशन हुआ है और अंदर से मवाद रीस रहा है। जी मितलाने लगता और मुंह से धीरे धीरे कराह आने लगती। मेरे बिस्तर के पैताने एक हरे रंग की टीन की पेटी थी और उसके ऊपर आठ किताबें थीं। सोये-सोये कराहने वाली आदत में ऊर्जा का इतना क्षय होता कि हर कहीं विस्मृतियों का जाला- सा बुनता गया। ठंढी किताबें कई बार पढ़ी जाने के बाद भी कई बार पढ़े जाने के लिए कोरी रहीं। किताबों मे लिखा सूरज एक पीलापन लिए उतना ही ठंढा और अंधेरा होता कि उस पर उँगली रखकर पढ़ा जा सके। थर्मामीटर के बुखार की तरह दिन के अंधेरे पर रात का अंधेरा किस तरह चढ़ता पता नहीं चलता था।
नौकरी के शुरुआती दिनों में इतवार तारीख वाले कैलेण्डर पर अलग से लाल रंग का चमकता था और हम उस लाल कोठे में मछली-भात लिखकर भर दुपहरी दरबार सिनेमा में सोये रहते।
आज वृहस्पतिवार था। अचानक की छुट्टी में कई सारे छोटे-छोटे फुर्सताह काम उग आए थे। घर में रखा टीन का बक्सा नोना लगकर झड़ गया था। एक नया बक्सा लेना था। चार किरायेदारों की एक सार्वजनिक नाली मेरे बरामदे के नीचे से गुजरती थी। मकान मालिक ने बरामदे का फर्श फोड़ कर, एक छोटा छेद नाली में मिला दिया था। बर्तन माजने और नहाने का पानी उसी रास्ते नाली में गिरता। उसी रास्ते नाली के बड़े-बड़े चूहे अंधेरे घर में तशरीफ रखते। बाद के दिनों में मैंने उस छेद में एक टूटी चायछन्नी लगा रखी थी। आज साइकिल निकालते घड़ी टूटी चायछन्नी नाली में गिर गई।
मुर्गीहट्टा बाज़ार में अच्छी-खासी भीड़ थी। सुबह के नौ बजे थे। इतवार को यह भीड़ और बढ़ जाती। बस के किनारे से साइकिल निकालते घड़ी, साइकिल स्कूटर से भीड़ते-भीड़ते बची। पीछे से एक ने मेरी साइकिल थाम ली, नहीं तो एक दुकान के आगे रखे पेप्सी के बक्से पर साइकिल गिर जाती – आठ-सात खाली बोतलें फूट जातीं। दुकानदार ने “हाँ-हाँ” कर मुझे डाँटा कि उसके डाँटने से मैं नहीं गिरा। पीछे से साइकिल पकड़ने वाला नारायण था। मैंने सम्भल कर उसे पहचाना। वह मुझे पीछे से ही पहचान लिया था बावजूद इसके कि मैं रोज-रोज एक ही शर्ट नहीं पहनता। स्कूटर वाले से नारायण ने ही मेरी तरफ से माफी मांगी थी। नारायण अपनी एक छोटी-सी बेटी के साथ बाजार आया था।
मैं नारायण के साथ-साथ साइकिल डगराते हुए बाज़ार पार करने लगा। वह अपनी सब्जी की झोली मेरी साइकिल के कैरियर पर रख कर साथ साथ चल रहा था। उसकी बेटी भी कैरियर पर लटकती सी साथ-साथ चल रही थी। पता नहीं नारायण ने बेटी का क्या नाम रखा हो- मैं मेघा रखता। मेरे मामा की लड़की इतनी ही काली थी और उसका नाम भी मेघा था।
“आज दफ्तर नहीं गये”, हड़ताली मोड़ तक आते आते, नारायण ने हँसते हुए पूछा था । कई बार हम चाहकर भी पूरी तरह नहीं रो पाते। खुल कर हँसी की तरह खुलकर रोना हो पाता तो आँसू आज भी मोतियों- सा चमकते।
“नहीं, मेरे दफ्तर के एक कलिग, कालिंदी बाबू कल मर गए इसीलिए आज छुट्टी पड़ गई।”
“बड़े बाबू थे?” बहुत पहले फोटो खिचाते घड़ी जितनी मुस्कान अनिवार्य होती थी, उतना ही अनिवार्य दुख चेहरे पर लाकर नारायण ने पूछा- बड़े बाबू थे?
“नहीं, प्रुफरिडर थे। उम्र में बड़े बाबू से बड़े थे”, मैने एक हाथ से साइकिल का हैण्डेल थामे, दूसरे से जेब की तलाशी ली- नोट यथावत था।
“सीने में चोट आ गई क्या?”, नारायण ने धीरे से पूछा। छोटी सी बेटी अब भी कैरियर पर झूल रही थी।
“दाहिने पैर के अंगूठे में चोट है”- मैंने कहा।
“स्कूटर से लगी या बस से” नारायण झांक कर दाहिने पैर का अंगूठा देख रहा था।
“पहले का चोट था अभी वहाँ झूठा पड़ गया सो चिलकने लगा” झूठ-मूठ के चोटिल अंगूठे वाले पैर से झूठ-मूठ लंगड़ाते हुए मैंने बोला।
बाज़ार पार कर बिरती के मैदान के रास्ते हमलोग निकलने लगे। मैदान के बीचो-बीच पैदल चलने से बनी पैदल चलने की लीक थी। मैदान पूरा समतल था फिर भी लोग उसी लीक पर रेलगाड़ी की तरह चलते थे। एक ने घण्टी बजाई, हमलोग लीक पर थोड़ा किनारे हो गये। वह आगे बढ़ गया। बीच मैदान में लीक पर विकेट गाड़कर बच्चे क्रिकेट खेलते थे। आज वृहस्पतिवार था। मैदान के सारे बच्चे स्कूल में थे। इतवार को स्कूल के सारे बच्चे मैदान में होते थे। वृहस्पतिवार को नारायण का सैलून बंद रहता था।
“आप किधर जायेंगे?” बीच मैदान में, विकेट गाड़ने वाली जगह पर खड़े होकर नारायण ने टॉस उछालने की तरह पूछा था- हेड या टेल?
“बैटिंग फस्ट अर्थात बड़े बाबू के घर”
मैदान पार करते ही “लौंग ऑन” की दिशा में नारायण का घर था। बड़े बाबू लौंग ऑफ की तरफ रहते थे।
मुझे याद नहीं था, मै अब भी लंगड़ाते हुए चल रहा था। नारायण ने पीछे से चिल्लाकर कहा , चढ़ कर चले जाइये। मुझे याद नहीं आता तो पैदल ही बड़े बाबू के घर तक चला जाता। वे मेरा लंगड़ाना नहीं देखते उन्हें लगता कि साइकिल पंचर हुई है।
बड़े बाबू अभी-अभी बाज़ार से पोई का साग लेकर लौटे थे।
“मैंने तुम्हें बाज़ार में देखा था”- बड़े बाबू ने खुश होकर कहा- “मुझे लगा कि तुम चूहे मारने की दवा लेने जा रहे थे।”
मुझे खुशी हुई कि मै बाजार में सिगरेट नहीं पी रहा था। बहुत पहले जब भी बाबूजी घर आकर मां से कहते कि मैने बाज़ार में चुन्नू को देखा, तब मै बाज़ार मे सिगरेट पी रहा होता था।
“मै आपसे ही मिलने बाज़ार होकर आ रहा था। आपने बाज़ार में मुझे टोका नहीं”
“मुझे तुमसे कोई काम नहीं था, इसलिए नहीं टोका। पोई का साग खाते हो?”
“बड़े बाबू, अब उस घर में रहना नहीं हो पाता” मेरे मुँह से वैसी ही कराह एक बार आई।
बड़े बाबू ने बड़ी इत्मीनान से कहा कि कल परसों तक कालिंदी बाबू का हिसाब हो जाएगा। अगले सप्ताह तक उनका परिवार कम्पनी का घर छोड़ कर गांव चला जाएगा। वे लोग उनका क्रिया-कर्म गांव पर ही करेंगे। तुम उसी घर में आ जाना।
बहुत दिनों बाद, बहुत पहले के दिनों की तरह खुश था। बाज़ार आकर, आठ रुपये में भर पेट अण्डा-भात खाया। दरबार का टिकट दस का था। इण्टरवल में मैंने दो रुपये का नेवी-कट पीया और गई सांझ घर लौटा। साइकिल तेज-तेज भाग रही थी। शर्ट हवा में फड़फड़ा रहा था।


सोमवार, 16 अप्रैल 2012

जादू : एक हँसी, एक हीरोइन


(वैसे वहाँ कुछ नहीं था, जहाँ वे नहीं थे सिर्फ एक एहसास था जो उनके लिए सब कुछ था । जिन्दगी के इस बदलते दौर में जहाँ परिचय की शुरुआत किसी दुर्घटना की तरह होती थी। मृत्यु का समाचार सुनकर पता चलता था कि यह आदमी अब तक जिन्दा था। वहीं इस कहानी की सत्यता के पक्ष में कहीं कोई हलफनाम दर्ज नहीं होना चाहिए था।)
अंतत: टीले की तलाश समाप्त हुई। नहीं तो पहले साइकिल पर चढ़ने के लिए रोज ही एक टीले की तलाश करते थे अनिरुद्ध भाई। पूरा नाम अनिरुद्ध प्रसाद सिंह। जाति के भूमिहार हैं। मित्र तो नहीं कहेंगे बस एक रागात्मक व्यवहार है। औपचारिक बात-चीत। वे मुझे शरीफ समझते हैं और मैं उन्हें…।
साइकिल पर चलते-चलते रोज नई-नई बात सोचते हैं अनिरुद्ध भाई। कभी रामायण सोचते हैं, कभी राजनीति सोचते हैं, फिल्म, नौकरी, लड़की, कविता, कहानी, बचपन, जवानी, कमाई-खर्च, दिन-रात, सुबह-शाम, हवा-वर्षा- जाड़ा, खेत-खलिहान - ….सब। यह सारी सोचें पहले अव्यवस्थित थीं। अब एक निश्चित दिनचर्या के तहत पूरी होती हैं। यह बात भी इनके मिजाज में कुछ सोचते वक्त ही आई थी कि वे तो बहुत कुछ सोचते हैं। केवल इन्हें क्रमबद्ध, लयबद्ध एवं व्यवस्थित लरने की जरूरत है। सारा सोचें क्रमवार, व्यवस्थित ढंग से हों तो आदमी बना जा सकता है। और उन्होंने एक सिद्धान्त खोज निकाला- आदमी पढ़ने से ही नहीं सोचने से भी विद्वान बन सकता है।
और अब साइकिल पर चढ़ने से पहले ही सोच लेते हैं कि आज उन्हें सोचना क्या है।
साइकिल पर सवार अनिरुद्ध जी कुछ सोचते हुए कहीं जा रहे थे। पूछने पर पता चला अंग्रेजी के कुछ शब्दों पर विचार कर रहे हैं। अनिरुद्ध जी साइकिल से कुद कर नीचे उतर गए। कहने लगे- “यार, चाहे जो भी हो पर प्यार को किसी ने जन - जन तक पहुँचाया है तो वह अंग्रेजी ही है।” मैं चुप था, वे कहते रहे- “अंग्रेजी नहीं होती तो भला कौन किससे कहने जाता कि मैं…तु…म…से… प्या…र… क…र…ता… हूँ… या मैं…तु…म…से… प्या…र… क…र…ती… हूँ” वाक्य इस रफ्तार से कहा गया मानो यह कहने में सदियों गुजर जायेंगे – और सच तो ये था कि गुजरते भी थे। आगे, “यहाँ तो थैंक्यू भी बोलो तो लगता है आई लभ यू बोल रहे हो” – यकीन मानिये कि आई लव यू बोलते घड़ी अक्षर की तरह होंठ भी उसी साइज में आड़े-तिरछे हुए थे-“देखो तो तो प्रमोद, इस अंग्रेजी ने कितने अच्छे-अच्छे शब्द दिये हैं-थैंक्यू, डार्लिंग, इक्सक्यूज मी, प्लीज इत्यादि। जानते हो प्रमोद, ये सारे के सारे शब्द आई लभ यू बन सकते हैं। आदमी के पास शब्दों का इस्तेमाल करने की कला होनी चाहिए। आदमी के पास अदायगी और लड़कियों के पास नजाकत हो तो प्यार तो साला सॉरी से भी शुरू हो सकता है।
अन्तिम वाक्य कहकर अनिरुद्ध जी ने इस कदर आँखें बंद की मानो उन्हे पीएच.डी. की थेसीस पर डॉक्टरेट की उपाधि मिल रही हो।
अनिरुद्ध जी की बन्द आँखें कि अनुभव और विषाद के बीच का मध्यान कि मौखिक वक्तव्य का पहला अल्पविराम कि मेरे निकल जाने भर का छोटा-सा दराज कि बन्द आँखों वाले इस सज्जन के कन्धे पर हाथ रखते हुए मैने कहा, “सही है अनिरुद्ध भाई, एकदम सही।” मैं पीपल के सोर पर खड़ा हो गया। अनिरुद्ध भाई एकदम थथमथा गए- अपनी बड़ाई सुनकर या बात को जल्दी खत्म कर देने के आश्चर्य से- मालूम नहीं क्यों।
अनिरुद्ध भाई बोलते हुए अच्छे आदमी लगते हैं। मैं अपनी तथा उनकी बातें सोचते हुए, उनकी विपरीत दिशा में चलते-चलते पीछे मुड़ा तो टीले की तलाश मे जा रहे अनिरुद्ध भाई एक अनुभवी तथा बुजुर्ग गिद्ध की तरह दिखे- जो किसी सूखे हुए वृक्ष के टूटे हुए शाख की तलाश मे चला जा रहा हो। दरअसल टीला ढूँढ़ने वाली समस्या उन्हें तब होती थी, जब वे अपने घर से किसी अलक्षित मंजिल की तरफ निकल चुके होते थे और बीच में ही कहीं अकारण रुक जाना पड़ता था- जैसे कि आज। नहीं तो जब एक दिन सत्यदेव चौधरी के दुआर पर भैंस बाँधने वाला खूँटा गड़ा। उस दिन बहुत प्रफुल्लित हुए थे अनिरुद्ध भाई। तब से, घर से निकलकर साइकिल डुगराते हुए आते और इसी खूँटे से उड़ान भरते। साइकिल थोड़ी डगमगाती थोड़ी दायें-बयें करती। फिर सम्भलकर अपनी गजगामिनी की गति पकड़ लेती-यह साइकिल की दिनचर्या थी।
यदि सच पूछें तो आज कल मै अनिरुद्ध भाई से थोड़ा कतराने लगा हूँ। सोचता हूँ अनायास किसी दिन चौराहे पर पकड़ कर कहने लगें – यार प्रमोद, आज-कल मैं हिन्दी के शब्दों पर विचार कर रहा हूँ- तब मेरा क्या होगा। मैं तो वहीं खड़े-खड़े जमीन में सात हाथ गड़ जाऊँगा। क्योंकि तब तक अनिरुद्ध भाई समझ चुके होंगे कि –सही है अनिरुद्ध भाई , एकदम सही- का अर्थ उनकी बातों का समर्थन करना नहीं बल्कि उनसे पीछा छुड़ाना होता था।
पर एक बात है कि पिछले तेरह सालों से साइकिल पर सवार अनिरुद्ध भाई को कभी इस तरह नहीं देखा गया किल लगा हो कि वे कहीं जल्दी में हैं। हाँ, कभी-कभार ऐसा जरूर लगा, मानो वे सर्कस में हों या स्लो-साइक्लिंग कम्पटिशन में। इस बारे में भी अनिरुद्ध जी का एक तर्क है जो धीरे-धीरे सिद्धन्त का रूप ले रहा है। वह यह कि जो धीरे-धीरे साइकिल चलाता है वह सभ्य और शरीफ आदमी होता है और जो तेज तेज… वह लफंगा।
अभी तक अनिरुद्ध के साथ जी और भाई जैसे शब्द सुनकर आपको लगता होगा कि वह एक अधेड़ आदमी हैं पर यह सम्मान उनकी दिनचर्या को दी जाती है जो उन्हें समान देने के लिए विवस करती है। लेकिन दरअसल यह कहानी गिरधर परसा गाँव के उस अनिरुद्ध की है, जिसका एक बाप था, एक माँ थी, एक बिरादरी थी, कुछ खेत थे, बारहवीं पास का सार्टिफिकेट था। और वह… वह अपने आप को बुद्धिजीवी मानने से इंकार कर रहा था उसका मानना था कि इस देश की मौजूदा हालात समाज में तथाकथित बुद्धिजीवी कहलाने वाले लोगों की ही देन है।
आगे कि बात यह है कि वे सिर्फ चाय पीते हैं और एक लड़की से प्यार करते हैं। वह लड़की जब भी उनके सामने आती है। शराफत की बोझ तले दबी हुई उनकी पलकें थोड़ी और झुक जाती है। लड़की, उन्हें एक पुरानी फिल्म की हिरोइन की तरह लगती है। नहीं, नहीं लड़की नहीं सिर्फ कड़की की हँसी। पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी की तरह लगती है। जिसका नाम उन्हे मालूम नहीं –लड़की का नहीं हीरोइन का। लड़की का नाम पुष्पा है- पुष्पा। अनिरुद्ध भाई चाहे तो उसकी हँसी पर एक कविता लिख सकते हैं या चाहे तो एक गाना भी गा सकते हैं- क्या खूब लगती हो, बड़ी सुन्दर दिखती हो।
वह उन्हें भइया बोलती है। उन्हीं के गाँव के पूरब टोला की धोबिन की लड़की है।
समय गाँव से लेकर शहर तक, हर जगह बदल रहा था, फर्क बस इतना था कि उस समय भी लोग पृथ्वी को नहीं सूरज को घूमते हुए मान रहे थे।
कुम्हार मिट्टी का बर्तन बनाना छोड़कर मिट्टी में सब्जियाँ उगा रहे थे। लुहारों के लड़के ड्राइवरी या चिमनी पर ईंट ढोने का काम कर रहे थे। डोम जो बाँस के झाडू और टोकरी बनाते थे अब उसी टोकरी से बालू ढोकर ट्र्कों पर लादते और दिहाड़ी पचपन रूपये पाते। वहीं पवरियों, चुड़ीहारों, भाटों और औरतों के हाथ पर गोदना गोदने वाली नेटुआइनो की तो प्रजाति ही बदल चुकी थी या यूँ कहें समाप्त हो चुकी थी। वहीं धोबियों ने गदहा पालने और गाँव के फटे पुराने कपड़े धोने के एवज में, किसी तीज त्योहार पर साल में एक बार कुछ मिल जाने के आस को छोड़ कर, खेतों मे काम करने और मजदूरी करने का बीड़ा उठा लिया था पुष्पा उसी जाति की साँवली, पतली और कम बोलने वाली लड़की थी जो अनिरूद्ध भाई को भा गई थी।
अपनी जिन्दगी में सिर्फ एक बार छुए हैं पुष्पा को अनिरूद्ध भाई। कब? एक बार जब वह उनके खेत में रोपनी कर रही थी। खेत में पूरा पानी खड़ा था। घुटनों तक साड़ी उठाये पुष्पा की चाची। गंजी और गमछा पहने अनिरूद्ध भाई । और सलवार को घुटनों तक उठाए, हाथ की रंग बिरंगी चुड़ियाँ – जो पुरानी पड़ जाने के कारण एक ही तरह की लग रही थी- कोहनी तक उठाए तथा छाती की गोलाइयों को गंदे गमछे से ढके पुष्पा , धान की रोपनी कर रही थी। अनिरूद्ध भाई को एकाएक लगा कि उनके पांव के नीचे कुछ साँप जैसा जीव सरक रहा है। डर के मारे अनिरूद्ध भाई कुद कर भागना चाहे। पांव अंदर तक किचड़ में धँसा था सो वहीं गिर गए और उन्हें पुष्पा ने ही हंसते हुए उठाया था। तब।
अपने नाम के तरह शीतल आवाज की तरह शान्त, चांदनी रात की सुन्दरता और एक चाँद सी मुस्कान। ऐसा भला कौन होगा जो अपने आप को इस पुष्पा के हवाले नहीं कर देगा।
वैसे तो शरीर की हर गतिविधि दिमाग से संचालित होती है। आँखो के सामने कुछ आते ही पलकों का बंद हो जाना, शरीर पर मच्छर बैठते ही हाथ का वहाँ चला जाना इत्यादि। पर कुछ काम ऐसे भी हैं जिनमे दिमाग नहीं लगता, जैसे- साइकिल चलाते घड़ी पैडेल के साथ पाँव का घुमना। सो साइकिल चलाते वक्त जाड़े की रात में रजाई में घूस कर सोने का मजा तो नहीं कहेंगे पर बहुत मजा आता है अनिरूद्ध भाई को। जाड़े के इस मौसम में, जहाँ हवा हड्डियों तक का एक्स-रे कर देती है। सुबह सुबह उठकर नहा धोकर, पूजा पाठ करके साइकिल निकालते हैं। साइकिल थोड़ा पोंछते हैं। फिर बड़े छाप की बिछाने वाली चद्दर- जिस पर लाल और पीले रंग के कहीं न खिलने वाले फूलों की छाप होती है- ओढ़ कर चल देते हैं, सत्यदेव चौदरी के दुआर की ओर। सत्यदेव चौधरी का दुआर अर्थात भैंस बांधने वाला खूँटा अर्थात अनिरूद्ध भाई के टेक-अप होने का निश्चित जगह। यहाँ आकर साइकिल पर सवार होते हैं। साइकिल थोड़ी दाँयें-बाँये करती है। थोड़ी डगमगाती है। फिर एक मूक गति से पालतू जानवर की तरह साइकिल चल देती है। अनिरूद्ध भाई चल देते हैं। एकदम धीरा, गजगामिनी की गति और उनके मिज़ाज में एक पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे मकबुल फिदा हुसैन के मिज़ाज में मधुरी दीक्षित आई थी। अनिरूद्ध भाई मन ही मन थोड़ा मुस्कुरा देते हैं।
आजकल अनिरूद्ध भाई कहाँ जाते हैं? क्यों जाते हैं ? - किसी को कुछ नहीं मालूम। काफी छान-बीन के पश्चात कहीं गुप्त सूत्रों से पता चलाकि सुबह पौने सात बजे निकलते हैं। सीधा पूरब दिशा को जाते हैं। वहाँ दो खेत है, उसे निहारते हैं। वहाँ से ठीक उत्तर दिशा को जाते हैं। वहाँ और दो खेत है उसे भी निहारते हैं। और वहाँ से जब पश्विम का रूख करते हैं, तब घाम उग गया होता है। चद्दर को लपेट कर कैरियर में दबाते हैं। पेंट की जेब से काली फीते वाली घड़ी निकालकर हाथ में बाँधते हैं। और यह सोचने लगते हैं कि आखिर आदमी हाथ में घड़ी बाँधता है या घड़ी में हाथ। कितना अच्छा होता कि लोग घड़ी में हाथ को न बाँध कर हाथ में घड़ी को बाँध कर रखते। यहाँ तो लोगों ने घड़ी में हाथ बाँध कर जीना दूभर कर लिया है और गुमान कि हाथ में घड़ी बाँधते है। यह सोचते हुए पहुँच जाते हैं अनिरूद्ध भाई शंकर मोड़ चौराहे पर।
चाय, पान, दवा, दारू और किराना दुकानो से बना है यह चौराह। दुकानें यहाँ दो कतारों में है। कतारों के बीच से बिहार सरकार की एक सड़क गुजरती है। सड़क कब बनी मालूम नहीं। पर इस सड़क से भी पुरानी यहाँ कोई चीज है तो वो है रामाधार साह की चाय की दुकान। रामाधार की दुकान में चाय पीते हैं। अखबार पढ़ते हैं। हाथ में घड़ी और घड़ी में समय देखते हैं। रामाधार के लड़के को एक का सिक्का देते है। पकड़ी के सोर(जड़)पर खड़ा होकर साइकिल पर सवार होते हैं। साइकिल डगमगाती है। दाँयें-बाँयें करती है। साइकिल चल देती है। अनिरूद्ध भाई चल देते हैं। गाँव के सिवान पर रूकते हैं। घड़ी खोलकर जेब में रखते हैं। फिर चल देते हैं अपने नीड़ के तरफ। धीरे-धीरे, एकदम धीरा- गजगमिनी की गति।
ये सूचनएँ बिरजू ने दी। पूरे गाँव को पता है कि बिरजू झूठ जरूर बोलता है पर सूचना के मामले में नहीं। इस सूचना के बारे में वह अपने माँ तक की किरिया खने को तैयार है। तो यहाँ इस संसय की कोई गुंजाइश नहीं कि यह सूचना सही है या गलत ।
यहाँ इस सूचना के मद्दे-नज़र कई सवाल खड़े होते हैं।
प्रश्न नम्बर एक कि अपना चौराहा छोड़कर ढ़ाई किलोमीटर दूर शंकरमोड़ चौराहे पर अखबार पढ़ने क्यों जाते हैं अनिरूद्ध भाई।
प्रश्न नम्बर दो घड़ी से सम्बन्धित है।
और प्रश्न नम्बर तीन कि आखिर आजकल इतना चुप चुप क्यों रहते हैं अनिरूद्ध भाई।
एक लोक कथा: कर्बला का कुआँ और अली साहब
गाँव के ठीक पूरब तो नहीं कहेंगे। और पूरब तथा उत्तर का कोण भी नहीं कहेंगे। पूरब दिशा के थोड़ा बाजू में। उत्तर दिशा वाले बाजू में। ठीक पूरब अर्थात परभू बाबा के तीन मंजिले छत से, सामने देखने पर जो बहुत दूर तीन ताड़ का पेड़ दिखाई देता है। उसी में से बीच वाला पेड़ ठीक पूरब कहलाता है। सूरज उसी पेड़ के ठीक पीछे से निकलता है। अनिरूद्ध भाई का दो बीघे का खेत। धोबिन की लड़की पुष्पा- खेत की मजदूर – पुष्पा की हँसी- पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी। अनिरूद्ध भाई का खेत, कर्बला का कुआँ। कुआँ प्रसिद्ध है, सो खेत की पहचान- कर्बला वाला खेत।
खेत पास कुआँ नहीं, कुएँ के पास खेत। क्योंकि यह कुआँ तब से है, जब इस संसार में किसी भी सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। कुएँ की एक कहानी है। कुआँ में पानी नहीं खून है। कुएँ में झाँकना मना है।
बात तब की है जब गाँव में एक बार अकाल पड़ा था। सूखा। घोर अकाल। खेत के फसल खेत में खड़े खड़े ही झुलस गए। चारों तरफ कोहराम मच गया। न जाने कितने चौपाये तड़प-तड़प कर मर गए। धरती फट गई। कहीं भी चिरई-चुरूंग की कोई अवाज नहीं सुन पड़ती थी। अकाल का पता पक्षियों को पहले चल जाता है- कहते हैं रामायन चाचा।
तभी एक पागल वृद्ध भूख और प्यास से विकल इस कुएँ के पास आया था। कुआँ तब सूखा था। वह पागल वृद्ध कुएँ में कुद पड़ा(या गिर पड़ा) और तेईस दिन तक एक पाँव पर खड़ा हो कर भगवान से पानी मांगता रहा। (इस कथा की त्रासदी अब भी उस गाँव के बुजुर्गों की आँखों में देखी जा सकती है। ) उसके शब्द कुएँ से बाहर नहीं आ पा रहे थे। अस्पष्ट रूप से जो शब्द आ पा रहे थे- कुण्ड, कुन, कण या कुण्डु कुछ ऐसे ही थे। उस शब्द के मानी उन (रामायन चाचा जैसे लोगों के) आँखों में नहीं दिखते, जहाँ वह त्रासदी दिखती है। अंतत: वह वहीं , उस कुएँ में गिर पड़ा। लोग उसके दर्शन करने के लिए आते रहे। लगभग चलीस-बयालीस घण्टे के पश्चात उसके शरीर की सारी गतिविधियाँ शान्त होती रहीं और साथ साथ कुछ अस्पष्ट शब्द धीरे धीरे अशान्त होते गए।
कुएँ की अपनी एक अलग प्रतिध्वनि होती है, जहाँ शब्द काँपते नहीं, डोलते हैं। मरते नहीं, रोते हैं।
शुक्रवार की साँझ सूरज ढल रहा था। उमस कुछ और बढ़ आई थी। भीड़ कुछ और उमड़ी थी। लोगों ने बाहर से ही कुएँ में मिट्टी डालना प्रारम्भ किया। उसे उसी कुएँ में दफना दिया गया।
परभू बाबा के तीन मंजिली मकान के ठीक पीछे, बड़े बँसवार के झुरमुटों मे सूरज कहीं छिप जाता है कि उस दिन भी छिपा था। रामायन चाचा के चेहरे की झुर्रियाँ कुछ फैल सी जाती हैं- आँखें छोटी हो जाती हैं कि लगभग मूदे हुए भाव से कहते हैं- “…तब उस शाम आकाश न जाने किधर से घुमड़ते हुए काले मेघ आए थे। देखते ही देखते शाम रात में बदली थी। और तब बिजलियाँ ऐसी कड़कीं कि बस…” रामायन चाचा की आँखें भी चमक जाती हैं- “तब हम बच्चे थे”- कहते कहते बच्चों सा चहक उठते हैं, “घण्टे दो घण्टे मे लगा कि बाढ़ आ जएगा। पूरे गाँव, खेत, खलिहान, नदी-नाले, ताल-तलइया सब जगह पानी खड़ा हो गया। इस तरह क्या कहें तीन महीने तक लगातार, रातों-दिन पानी गिरता रहा । गाँव में सियार, डांगर मर-मर कर उतराने लगे। देखते-देखते महामारी फैल गई। अब आदमी की मरने की बारी थी। महामारी जानो हो? इ सब बरम के कुपित होने से होता है। पूरा गाँव त्राहि त्राहि करता उसी कुएँ के पास भागा। और इधर कुएँ मे…” हमारी आँखें प्रश्न पूछती है, “कुएँ में?”
“कुएँ में पानी के जगह खून भरा था लबालब।,” रामायन चाचा की पकी मूछों के भीतर रहस्य भरी मुस्कान थिरक उठती है- कहते हैं- “एकदम लाल टेस। खौलता हुआ।
और हम सिहर उठते थे उस कथा में।
“जादू?”
“नहीं रे बाबा खून …एकदम लाल टेस”, रामायन चाचा कहते है। “फिर सभी हाथ जोड़ कर गुहार लगाए। मनौती मांगे। खुरमा बतासा चढ़ाए और तभी सबके बीच से भंगी महाराज ने शंख फूँका और कहा कि गाँव पर दया करो हे कुण्डू महाराज हम हर साल तुम्हारी पूजा करेंगे। फिर तीन बार शंख फूँका। शंख की तीसरी ध्वनि खत्म होते होते सूरज अपना धाही दिया था।
तब से वहाँ हर साल एक मेला लगता है। कुण्डु का मेला। उस पागल, वृद्ध, बरम, कुण्डु महाराज के मृत्यु तिथि पर।
चूंकि यह तय नहीं हो पाया था कि वह पागल, वृद्ध हिन्दू था मुसलमान। इसलिए दोनों समुदाय के लोग उस मेले में बड़े सच्चे दिल से सरीक होते हैं। आखाड़ा जमता है। करखा खेला जाता है। दुकानें लगती हैं।
हिन्दू समाज के प्रमुख परशुराम बाबा और मुसलिम समाज के अली साहब, दोनों इस कुएँ के आर पार बैठते हैं। आमने सामने। धोती और गंजी पहने परशुराम बाबा तथा सफेद लिवास में काला गमछा ओढ़े अली साहब। अली साहब मदरसे के मौलवी हैं। सभी दीन-दुखिया मेले के दिन आते हैं। अपनी अपनी समस्या अली साहब या परशुराम बाबा में से, जिससे चित्त फरियाता, उससे बताते हैं। दोनों प्रमुख अपने अपने ग्राहकों की समस्या अपने अपने ढंग से कुएँ में झाँक कर पूछते हैं। कुआँ निदान बतलाता है जो सिर्फ उन्हीं दोनों को सुनाई पड़ता है। और वे लोग अपने अपने ग्राहक को निदान बतला देते हैं।(यहाँ कोई भेद भाव नहीं है। किसी भी जति का आदमी किसी भी प्रमुख से अपना प्रश्न पूछ सकता है।)
बसंती देवी को लड़का नही हो रहा था। पशुराम बाबा ने कहा कि तुम्हारा कोई संतान जोग नहीं है। वह घूम फिर कर आई और परशुराम बाबा से नजरें चुरा कर यही समस्या अली साहब से पूछी। अली साहब ने कहा कि अल्लाह के करम से तुम्हे एक नेक और होनहार औलाद होगा। बिरजू उसी वरदान का पका फल है। गाँव का सूचना विभाग उसी के जिम्मे है। अली साहब बहुत पहुंचे हुए आदमी हैं। आदमी नहीं देवता हैं ।
गई शाम मेला खतम होता है। सभी अपने अपने घर चले जाते । अली साहब वहीं बैठे रहते हैं । रात को जब बारह का गजर होता है । अली साहब कुएँ में घूस कर खून से नहाते हैं । और नंगे बदन मदरसे में वापस चले जाते हैं ।
“जादू?”
“नहीं रे सच्ची । खून से लाल टेस ।“
मदरसे में वापस आते वक्त यदि कोई नंगे बदन उस डगर पर लेट जाये, और अली साहब उस लेटे हुए आदमी पर पाँव रख दें। तो समझो कि अली साहब का आशीर्वाद उसे मिल गया । लेटने वाले की मन की मुराद पूरी हो जाती है ।
यह बात गाँव के सभी लोग जानते और मानते हैं। बिरजू को छोड़कर। बिरजू का मानना है कि यह सब बात गलत है, एक दम गलत ।
एक बार जब रात को बिरजू संग्रामपुर से नाच देखकर अकेले घर लौट रहा था । आधी रात हो गई थी । कहीं एक भी चिरई-चुरुंग तक नहीं थे । सिर्फ झिंगूर की झिझियाने की आवज थी उस विराने में और रास्ते में था वह कर्बला वाला कुआँ । तब बहुत डर लगा था बिरजू को उस दिन । फिर भी । कुएँ में खून? कैसा लगता है ? रात का विरान पहर कि मन के विराने में एक और विरान रात । सच की रात से झूठ की रात ज्यादा विरान थी। झूठ की रात में भय था तो सच की रात में धोखा । झूठ की रात में खून तो सच की रात में कुआँ । सच की रात में बिरजू होता था , झूठ की रात बिरजू में होती थी । हृदय गति तेज हो जाती । जोर जोर से हाँफने लगता । भीतर की रात जब बाहर निकलती तो बाहर की रात और काली हो जाती। और वह और काली रात को निगलने लगता । धौंकनी और तेज हो जाती । भीतर से लेकर बाहर तक एक काली रात विषैले धुएं की तरह चारों तरफ तीरने लगती । तब साँस लेना भी मुश्किल काम लगता था । साँस भी नहीं ले पा रह था बिरजू । बेतरह डर गया था ।
“जादू?”
“नहीं रे बाबा आगे देखो ना”
वह कुएँ में झाँका , हालांकि झाँकना मना था । फिर भी झाँका । कुएँ के भीतर बहुत अंधेरा था सो कुछ नहीं दिखा ।
उसे जोर की पेशाब लगी थी । भय की पेशाब । मन में शरारत सुझी कि कुएँ में पेशाब कर परीक्षण किया जए । वह कुएँ में पेशाब करता रहा और मन ही मन अपने डर के साथ साथ एक अंधविश्वास को फाड़ता रहा । कुएँ में पानी नहीं था ।
“खून?”
खून भी नहीं, कुआँ सूखा था बिलकुल ।
कुएँ में न पानी था न खून । हाँ कुआँ गहरा जरूर- यह सिर्फ बिरजू की दलील है और बहुमत उसके पक्ष में नहीं है ।
अनिरूद्ध भाई बिरजू जैसे बेहुदा लोगों पर विश्वास नहीं करते । अब तो बस कुण्डु के मेले का इंतजार है। इस बार प्लान बना लिये हैं कि जा कर मेले वाले रात, नंगे बदन , मदरसे वाली डगर पर लेट जाएंगे और मन में मुराद कि – या कुण्डु महाराज या तो हमे धोबी बना दो या पुष्पा को भूमिहार ।
(कहानी जीवन दर्शन नहीं बल्कि जीवन का एक दर्शन होती है । संपूर्ण जीवन का सिर्फ एक दृश्य , एक पहलू , एक पहर । दूसरे दृश्य , दूसरे पहलू , दूसरे पहर की दूसरी कहानी)
पुष्पा ने आज तक अनिरूद्ध भाई से कुछ नहीं कहा सिर्फ ताक कर हँसती है । अनिरूद्ध भाई भी हँस देते हैं । वह चली जाती है । अनिरूद्ध भाई सोचने लगते हैं ।
एक दिन सुबह सुबह उठकर अनिरूद्ध भाई झांगा से दुआर बुहार रहे थे कि मुँह में मोटा सा नीम का दातुन लिये अवधेश बाबू ने कहा, “जा कर लिलवतिया से कह दो कि वो और श्रीकांतवा जाकर कर्बला वाले खेत में सोहनी कर दे । बीया गिराना है दो चार दिन में ।
“काहें, धोबी लोग अब सोहनी नहीं करेगा का”, अनिरूद्ध भाई ने कहा ।
“ना ऊ सब नहीं करेगा, खेत में बइठ के खाली खाली बतिआता है सब”, तेवर कड़ा था । अवधेश बाबू अनिरूद्ध भाई के पिता हैं । गाँव के प्राइमरी स्कुल के शिक्षक पद से रिटायर गिद्ध। दिन भर टर्र टर्र करते रहते हैं।
“आ लिलवतिया दिन भर खलिहान में बइठ के बीड़ी फूँकती है, ऊ ठीक है ” अनिरूद्ध भाई ने जबाब दिया । आवाज मे मर्दाना पन था । आँखे झुकी थी । मानो सत्तर-अस्सी के दशक में सिलवर स्क्रिन पर चल रहे बाप बेटे का शीत युद्ध । अनिरूद्ध भाई अमिताभ बच्चन और अवधेश बाबू दिलीप कुमार या संजीव कुमार ।
जो बुझाय सो करो कहकर अवधेश बाबू अंतरध्यान हो गए ।
अनिरूद्ध भाई दुआर बुहार कर उठे । मुँह और मूड दोनो साफ किये । साइकिल निकाले । और चल दिये सत्यदेव चौधरी के दुआर पर । धोबी टोला जाने के नाम पर अनिरूद्ध भाई इस कदर खुश होते हैं, मानो ससुराल जा रहे हों ।
पुष्पा की माँ से मुखातिब होते हुए उन्होंने पूछा कि पुष्पा कहाँ है?
पुष्पा की माँ अब किसी के खेत मे काम नहीं करती । नहीं हो पाता है । कम देखती है । कम सुनती है । मुँह है, बहुत बोलती है । खूब गरियाती है । गाँव का गाँव तबाह है मारे खुशी के । बच्चे खुश हो कर गालियाँ सुनते हैं और बड़े मंत्रमुग्ध हो कर । वह अनिरूद्ध भाई की इज्जत करती है । गाँव में भूमिहारों को बाबू साहब कहा जाता है । सो वह उन्हें बाबू साहब कहती है । खड़ी हो गई । झाडू से दुआर बुहार रही थी । हाथ चमकाकर धीरे से बोली- उधर ही खेत में गई है , का बात है?
“सोहनी का बात करना था”, अनिरूद्ध भाई कौवे की तरह गर्दन उठा उठा कर इधर उधर ताक रहे थे ।
“ठीक है हम कह देंगे”, पुष्पा की माँ ने कहा ।
अनिरूद्ध भाई भारी मन से “ठीक है” कह कर किसी टीले की तलाश में आगे बढ़ने लगे- साइकिल पर चढ़ने के लिए ।
साइकिल पर सवार अनिरूद्ध भाई घर आने लगे कि रास्ते में, हाथ में हसिया लिए पुष्पा आती हुई दिखाई पड़ी। पुष्पा अनिरूद्ध भाई को दूर से देखकर हँस दी । अनिरूद्ध भाई को हँसी नहीं आई । दया जैसा कुछ भाव बह रहा था । वे साइकिल से कुद कर नीचे उतर गए। कुद कर ही उतरते हैं। आराम से नहीं उतर पाते । पुष्पा रूक गई ।
“ऐ रे पुष्पा एक बात है”, अनिरूद्ध भाई ने बड़ी आत्मीयता से कहा ।
पुष्पा ने सवाल पूछने की दिशा में गर्दन उठा दिया और साइकिल के हैण्डल पर हँसिये से दो बार ठोक दिया…टून्न टून्न । मन में बड़ी ग्लानि भरकर अनिरूद्ध भाई ने कहा कि कर्बला वाले खेत में सोहनी है ।
यदि अनिरूद्ध भाई ही घर के मालिक होते तो नहीं कहते । बड़ा दुख होता है , कहने में, पुष्पा से कोई काम कराने में । बड़ी नाजुक चीज है पुष्पा सिर्फ रानी बनने के लायक है- भोरे भोरे उठकर, कम पत्ती और ज्यादा चीनी वाली चाय बनाने लायक । पुष्पा ने खड़े खड़े वहीं जोर से छींका और दूसरे छींक के लिए आसमान में ताकने लगी। अनिरूद्ध भाई को यह बहुत बूरा लगा कि ऐसे ही छींकती रही तब तो हुई शादी । लोग क्या कहेंगे कैसी बेलूर, बेशहूर है । पुष्पा अभी मुँह बाये ऊपर आशमान ही ताक रही थी । दूसरी छींक नहीं आई।
“चाची से बोले हैं”, पुष्पा ने हाथ से घण्टी बजा दिया । अनिरूद्ध भाई ने घण्टी पर हाथ रख दिया । पुष्पा की चाची पुष्पा के साथ काम करती थी ।
“ना तू बोल देना”, अनिरूद्ध भाई ने घण्टी से हाथ हटा लिया ताकि पुष्पा फिर घण्टी बजाये । इस बार उसके हाथ पर हाथ रखेंगे।
ठीक है कहकर पुष्पा हँस दी । फिर आँखें झुका कर कही कि एक बात कहना था ।
अनिरूद्ध भाई ने बड़ी आत्मीयता से पूछा- क्या बात है , बोल ना ।
कब खेत में जाना है?- पुष्पा फिर हँस दी । यह पुष्पा के मुँह से मेल खाती हुई हँसी नहीं थी । पुष्पा पहली बार मजदूर लगी , और उसकी हँसी किसी पुरानी फिल्म की हीरोइन की हँसी से हट कर , उसकी रंगहीन चूड़ियों सी निरीह , बेसूरी और बेजान लगी । एकदाम लाचार ।
“नहीं-नहीं बात बोल तू , क्या बोल रही थी?” अनिरूद्ध भाई जहाँ पुष्पा की हँसी पर पागल हुए जाते थे । आज अधीर हो गए ।
“बोल न पुष्पा, तू क्या बोल रही थी?”
“कुछ नहीं, यही तो…”, पुष्पा ने कहा । अनिरूद्ध भाई के इस विचित्र स्थिति के बारे में पुष्पा को हींग भर भी अंदेशा नहीं था ।
“नहीं-नहीं बोल, मुझसे छुपाएगी पुष्पा?”, मन तो हुआ कि पुषा का हाथ पकड़ लें और कहें कि तू मुझे अपना नहीं समझती पुष्पा।
“बात ए थी कि हमको दस रुपिया का दरकार था”, फिर रूक कर बोली , “मजदूरी से काट लीजिएगा।”
यह दूसरा वाक्य अनिरूद्ध भाई के अंतस तक धस गया । पुषा को रूपिया दूँ और मजदूरी से काटूँ? क्या आज तक मुझे यही समझी है पुष्पा? अनिरूद्ध भाई ग्लानि से भर गए । उनके पास पैसे बिलकुल नहीं थे ।
पुष्पा का रूपिया माँगना अच्छा लगा । इस तरह से माँगना कत्तई अच्छा नहीं लगा ।
“ठीक है, अभी तो नहीं है । तुम रूको, मै ला कर देता हूँ । कब तक चाहिए?”, अनिरूद्ध भाई ने यह बात पुष्पा से इस तरह कही मानो दो गरीब दम्पति आपस में अपने दुख-सुख बाँट रहे हों कि घोसला टूट जाने पर दो पक्षी दम्पति आपस में नए आवास की चिन्ता कर रहे हों कि जेठ की विरान दुपहरी में चल रहे प्रेमी-प्रेमिका कहीं छायादार वृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम करना चाह रहे हों और प्रेमी लाख प्रयत्नों के बावजूद वह वृक्ष नहीं खोज पा रहा हो…
“खेत में कब जाना है?” पुष्पा ने पूछा।
पुष्पा ने यह बात इस प्रकर से कही कि अनिरूद्ध भाई को लगा मानो वह यह समझ रही है कि मै उसे पैसा देना नहीं चाह रहा हूँ । अनिरूद्ध भाई पुष्पा को निर्निमेष ताकते रहे । आँखें सजल हो गईं ।
“कब?” पुष्पा ने फिर पूछा ।
“कल सुबह , खूब सबेरे”
एक टीला देख कर अनिरूद्ध भाई साइकिल पर सवार हुए । साइकिल ने अपनी दिनचर्या पूरी की । अनिरूद्ध भाई ने पीछे मूड़ कर देखा कि साइकिल फिर लड़खड़ा गई । एक स्वाभाविक हँसी पुष्पा हँस दी । अनिरूद्ध भाई भी हँसे , जो हँसी दया और दीनता से बनी थी ।
अनिरूद्ध भाई ने घर आकर चारों तरफ जद्दो जहद किया । रुपया नहीं मिला । अंतिम उपाय बचा था जो क्षण भर के लिए सफल होता था- गिद्ध के मुँह से बैल का मांस चुराना अर्थात बाप के जेब से रुपया काढ़ना । मास्टरी के पद से रिटायर व्यक्ति के पास कड़कड़िया नोट नहीं होता सो कुर्ता के नीचले जेब में झुलता खुदरा सात रुपया ही था । वही लेकर चल दिए । सात रुपये ही लेकर जाने से अनिरूद्ध भाई के मन में ग्लानि तो बहुत हो रही थी । साइकिल पर चलते-चलते एक जगह ब्रेक लग गई और एक बात मिजाज में आई जो पीपल के नीचे निश्चिन्त बैठ कर सोचने वाली थी । वह यह कि क्या पुष्पा प्यार का मतलब जानती होगी ।
जानती होगी पुष्पा कि शादी के पहले भी एक प्रेम होता है, जो जरूरी होता है ।
…वह प्रेम किसी दूसरे पुरुष के साथ होता है ।
…प्रेम में आई लव यू बोला जाता है ।
…प्रेम में छुप-छुप कर मिलना पड़ता है ।
…प्रेम में एक प्रेम पत्र होता है ।
…प्रेम पत्र में दिल का छोटा बड़ा फोटो बनाया जाता है ।
… प्रेम पत्र वाले दिल के छोटे बड़े फोटो को छुआ जाता है ।
…दिल के छोटे बड़े फोटो को चुमा भी जाता है ।
…प्रेम में गले मिला जाता है ।
… प्रेम में झूठ बोला जाता है ।
…प्रेम में हाथ पकड़ा जाता है ।
…प्रेम में हाथ पकड़ कर प्रेम गीत गया जता है ।
…प्रेम में पकड़े गए हाथ को चुपके से चुम लिया जाता है ।
…प्रेम में गुलाब का फूल दिया जाता है।
…प्रेम में प्रेमी प्रेमिका को जूड़ा मे लगाने वाला रब्बड़ देता है ।
…प्रेम में नये नये कपड़े पहने जाते है ।
… प्रेम में मेला घुमने जया जाता है ।
…मेले में जलेबियाँ खाई जाती है ।
… और जो नहीं किया जाता वह यह कि प्रेम में छींका नहीं जाता ।
अनिरूद्ध भाई जब सात रुपये लेकर पुष्पा के घर पहुँचे तो खुद को बड़ा सस्ता पा रहे थे- पर मन में एक करिबी का एहसास जरूर था । पुष्पा घर के दरवाजे पर बैठी थी । बीच में । एक पाँव चौखट के इस पार दूसरा उस पार । बीचो-बीच में बैठी थी । जाड़े का दिन था । देह घाम लोढ़ रहा था । धूप अच्छी लग रही थी । पुष्पा अच्छी लग रही थी- बेफिक्र । उनको देखते ही खड़ी हो गई ।
“का बात है भइया”
“वो, तू रुपिया नहीं माँगी थी”
“हाँ, माँगी थी”
अनिरूद्ध भाई ने जेब में हाथ डाला । ऊँगलियाँ पाँच और दो के सिक्के को छू गईं । मन में फिर वो ग्लानि वाला भाव घुला । हाथ में पैसा लेकर आश्चर्य नजरों से उन्होंने पैसे को देखा ।
“क्या हुआ भइया”
“लगता है तीन रुपये कहीं गिर गये । …खैर ले काम चल सके तो चला ले पुष्पा”
“ठीक है, हो जाएगा”
“खुश है तो...”
पुष्पा हँस दी । अनिरूद्ध भाई का यह वाक्य पुष्पा को अजीब तरह से लगा । पुष्पा लजा गई । मन था बहुत बातें करने का पर जगह और समय दोनो अच्छा नहीं था ।
सात रुपये देकर लौट रहे अनिरूद्ध भाई पुष्पा को आज अपने बहुत करीब पा रहे थे । और , साइकिल पर चलते चलते सोचने लगे कि कल खेत में पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करेंगे ।
( पाठक वृंद को याद रहे कि कल कर्बला वाले खेत में पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करेंगे अनिरूद्ध भाई )
पुनर्जन्म: एक सत्यकथा
इस प्रेम मोहब्बत के दरमयान एक और चीज थी जो अनिरूद्ध भाई को भीतर ही भीतर साल रही थी । अनिरूद्ध भाई को अपनी दीनता, अपनी हालत पर आज बहुत दया आ रही थी । एक घड़ी जिसे अनिरूद्ध भाई ने छह महीने पहले गनेशस्थान मेले से पचास रुपये में खरीदा था, उसे आज तक चुरा कर बाँध रहे हैं । किसी तरह गुणा-भाग करके चौबीस घण्टे में एक रुपया उपराजते हैं, तो शान से , रामाधार के होटल में एक कप चाय पीते हैं । जिसके ऊपर जान देने की सोच रहे हैं –दिल तो दे ही चुके हैं- उसे दस रुपये तक नहीं दे पाते । स्साला… यह भी कोई जिन्दगी है । अब भान हुआ कि नौकरी करनी चहिए । येन केन प्रकारेण ।
१. गाँव से भाग कर नौकरी करना (इसमे प्रमुख है गाँव से भागना)
२. आत्म हत्या के लिए जहर खाना ।
३. और पुष्पा के साथ प्रेम का श्रीगणेश करना ।
तीनो का शुरुआती कण्डिशन बड़ा खतरनाक है । एक आम आदमी के लिए दूसरा और अनिरूद्ध भाई के लिए पहला और तीसरा काम एक समान है ।
गाँव से भागना हो तो कैसे भागें, क्या क्या समान लेकर भागें । कितना रुपया लेकर भागें । किससे बता कर भागें । किससे नहीं बता कर भागें । और आखिर में भागें तो कहाँ भागें ।
जहर अभी खायें कि कल खायें कि न खायें । मरने के बाद क्या होगा । कौन रोएगा । कौन क्या कहेगा । माँ रोएगी , कौन चुप कराएगा ।
पुष्पा से क्या कहें ? पहले हाथ पकड़ें कि पहले उसे देख कर आँख मारें कि उसे ताक कर हँस दें कि आई लव यू बोल दें कि खेत में पटक कर चुम्मा ले लें ।
पहले घर से भगोड़ों या नौकरी करने जाने वालो के लिए एक ही स्टेशन था- हावड़ा स्टेशन । अब इस नई पीढ़ी ने दिल्ली , गुजरात की तरफ रुख किया है । तो चले आए गुजरात के कर्कश करातों के बीच अनिरूद्ध भाई भी वेल्डर बनने के लिए ।
( यहाँ पाठक गण एक बात मान लें …या कल्पना कर लें )
-जादू?
-नहीं रे बाबा सच्ची
-एकदम सच्ची?
-नहीं रे सो सो
-फिप्टी फिप्टी
-चल
मान लीजिए अनिरूद्ध भाई अनिरूद्ध भाई न हो कर कुछ और होते- चंदन , मंटु , नीरज कुछ भी । …उनके पास साइकिल न हो कर मोटर साइकिल होती ।
…यह गाँव गाँव न होकर शहर होता ।
…पुरानी नहीं , नई फिल्में होती ।
…सारी लड़कियों के कपड़े और हँसी , नई हीरोइनों की तरह होती ।
… सब कुछ नया होता ।
…नये लोग होते ।
… नई बातें होतीं ।
… पिछली हर बात परम्परा और इस बदले हुए परिवेश की हर बात अप-टू-डेट लगती ।
और इस बदले हुए परिवेश में, रात को टी.वी. पर फैशन शो देखते हुए अनिरूद्ध भाई को लगता कि यह उनका पुनर्जन्म है । या यूँ कहें कि सारी चीजें वह नहीं होती जो है , बल्कि सारी चीजें वह होती जो हम ऊपर से सोच रहे हैं ।
और इस तमाम ऊहा-पोह में सिर्फ पुष्पा वही होती जो वह है तो क्या होता?
हाँ तो हम कह रहे थे कि पुष्पा के साथ , कल , कर्बला वाले खेत में प्रेम का श्रीगणेश करेंगे अनिरूद्ध भाई।
इस बदले हुए परिवेश की चर्बी पर भर रात एक खुराफत नाचती रही और अनिरूद्ध भाई गम्भीर हो गए कि आखिर वे पुष्पा से चाहते क्या हैं और पुष्पा उनके बारे में क्या सोचती है । कहीं वह उन्हें अमीर , गम्भीर और शरीफ तो नहीं समझती है न? एक दम गलत बात है कि वह भी उन्हें वही समझे जो गाँव वाले समझते हैं।
यदि अमीर समझेगी तो पास नहीं आयेगी- वहाँ समानता नहीं होती। गम्भीर समझती होगी तो बात करने में हिचकेगी और कहीं यदि शरीफ समझती होगी तो प्यार नहीं करेगी ।
…कहीं पुष्पा यह तो नहीं समझती होगी कि शरीफ लोग प्यार नहीं करते, इश्क नहीं करते, किसी लड़की की तरफ नहीं ताकते, किसी स्त्री को नहीं छूते , पत्नी को भी नहीं । सिर्फ अमीरों का पोशाक पहन , गम्भीरता से कुरसी पर बैठ कर किताब पढ़ते हैं और शराफत से पत्नी से चाय मांगते हैं और बच्चा पैदा हो जाता है । अमीर लोग सम्भोग नहीं करते- सिर्फ पत्नी के पास सोकर किताब पढ़ते हैं और बच्चा पैदा हो जाता है ।
यदि यह सब समझती होगी पुष्पा तो कोरा बकवास समझती है ।
ऐसी ही कुछ-कुछ अवधारणाएं अनिरूद्ध भाई की भी थी पर इस बदले हुए परिवेश ने उन सारी अवधारणाओं को खारिज़ कर दिया है । और, इन अमीर , गम्भीर और शरीफ लोगों का एक नया खाका सामने रखा है । तब से यह सब होने से अपने आप को इंकार करते रहे अनिरूद्ध भाई ।
हाथ में हसिया लिये, घुटनों तक सलवार उठाए , हाथ की बेमेल चुड़ियों को कोहनी तक उठाए और वक्ष के उभारों को गंदे गमछे से ढके , जो लड़की खेत में काम कर रही थी - अनिरूद्ध भाई को समझते यह देर न लगी कि वह पुष्पा ही है । अनिरूद्ध भाई वहीं कुएँ के पास पेड़ के नीचे बैठे रहे । मन में तमाम भाव बन रहे थे , बिगड़ रहे थे - जो कि अक्सर शराब के नशे में होता है । विचारों का एक समुद्री तुफान आता है और शान्त हो जाता है – मस्तिष्क कोई स्थायी विचार नहीं बना पाता ।
इस बार लग रहा था , मानो कोई पुरानी फिल्म की हीरोइन ही खेत मे काम करने का अभिनय कर रही है ।
जहाँ शब्द यदि चुप से बेहतर न हों तो वहाँ चुप रहना ही बेहतर होता है । अनिरूद्ध भाई के मन में हुआ कि इस प्रेम की शुरुआत प्रेमपत्र से हो तो कैसा हो ? विचार काफी सतही था पर प्रेम में विचारधारा की जगह ही कहाँ होती है । सो प्रेमपत्र की बात सोची गई । प्रेमपत्र की पूर्व तैयारी नहीं थी , सो कागज या लेटर पैड का होना… । सो होमियोपैथ के दवाई वाले खाम पर पत्र लिखना प्रारम्भ हुआ । लिखने के लिए बातें बहुत थीं । भाव कुछ स्थिर और विस्तृत हो रहे थे ।
…सरिता की शीतल धारा सी अनुरागी चित्त , जब गम्भीर विचारों को शुष्क आवाजों से प्रकट करता है …सुन्दरता का बखान …बखानों के दरमान एक तुच्छ मुस्कान …दिल में उठे जजबातों को एक नई दिशा देकर हया के पर्दे को नये अंदाज से झुकाना …मासूम चेहरे पर शरारती बातों का होना …छोटी-छोटी बातों पर रुठना …रुठने के दरमायान खुश होना …छोटी-छोटी बातों पर संवेदनशील होना …संवेदनशील बातों पर हँस देना …समस्या में शावक सा होना …हर बात में एक क्यों का होना …अपनी चाहत में एक चाह का होना या अपने चाह में एक चाहत का होना- अनिरूद्ध भाई बैठे-बैठे ऐसे ही बहुत कुछ सोच रहे थे । लिख कुछ भी नहीं रहे थे । उन्हे ये सारी चीजें अच्छी लग रही थीं । अच्छी लगने वाली वस्तु या व्यक्ति में अच्छाइयों का होना अच्छा ही लगता है । जेठ की दुपहरी का ढलान था । अब शाम होने वाली थी । शाम के बाद एक रात । जेठ की प्रचण्ड धूप के बाद एक शुष्क रात का होना अच्छा ही लगता है और उस रात में बरसात का होना ? जनाब आप ही बतायें कि कैसा लगता है ?
उस खाम पर कुछ नही लिखा । एक दिल का फोटो बना दिया अनिरूद्ध भाई ने । दिमाग की फ्रिक्वेंसी एक बार दिल में धसे तीर की तरफ घुमी पर आज सोचने का समय नहीं था । खड़े हुए और चलने के क्रम में पेड़ पर चढ़ रही एक जंगली लता से एक पत्ता तोड़ लिया अनिरूद्ध भाई ने । जिसकी सूरत हू-ब-हू उस दिल की तरह ही थी जो उन्होंने उस दवाई वाले खाम पर बनाया था । अपने ही चित्रकारी पर हँसी आ गई मेरे एम. एफ. हुसैन को । अच्छा हुआ कि दिल बनाया और पत्ता बन गया , पत्ता बनाने जाते तो शायद जहाज भी बन सकता था- पानी वाला जहाज ।
क्लासिकल प्रेम के दृष्टिकोण से प्रेमपत्र को हटाकर पत्ता देकर प्रेम का इज़हार करने की बात सोची गई । चलते चलते कुएँ को देखा अनिरूद्ध भाई ने । नंगा लेटकर वरदान मांगने के अलावा बिरजू की दलील भी दिमाग में घुम गई । अनायास ही कुएँ में झाँक लिया जो कि खाली था । सूखा था । कुएँ को देखकर मन में दया आ गई । निर्निमेष ताकते रहे उस कुएँ को अनिरूद्ध भाई । छुपा लेना चाहते थे दिल के किसी कोने में एक प्रेमपत्र , एक पत्ता , एक जादू और एक पुष्पा की हँसी की तरह इस कुएँ को – जो कई बार बचा लेता है गाँव को आत्महत्या करने से , छुपा लेता है अपने में पूरे गाँव को , खेत को, खलिहान को, आकाश को, रामायन चाचा की झुर्रियों को, पुष्पा , पुष्पा की हँसी और उस गाँव की तमाम बूढ़ी आँखो की त्रासदी को - शहर से आ रही एक जादुई शहरी हवा के छूने से पहले ।
रामायन चाचा के बेतरती मुछों के भीतर से फुटती है एक रहस्यमयी हँसी – जादू के रुप में एक कुआँ । एक जादू, एक कुआँ ।
“जादू का कुआँ?”
“नहें रे बाबा … कुएँ का जादू”
“एक कुआँ, एक जादू?”
“नहीं रे… कुएँ में जादू, जादू में कुआँ”
बड़ी सरगरमी के साथ गाँव शहर बनने के फिराक में लगा है । अमीर , गम्भीर और शरीफ बनने के फिराक में जो कि बहुत खतरनाक बात है ।
पुष्पा सुस्ता रही थी । उनको देखते ही खड़ी हो गई । हँस दी । अनिरूद्ध भाई बढ़े जा रहे थे । इस बार की हँसी में वो अलहड़ता नहीं थी ।
- “क्या पुष्पा , कटनी हो गई?”
- “नहीं , सुस्ता रहे हैं”, पुष्पा बैठ गई ।
“दे पुष्पा, तब तक हम काटते हैं”
“हाथ कट जाएगा”
“नहीं कट जयेगा”
“कट जायेगा , बस… कल भर की तो कटनी है”
अनिरूद्ध भाई वहीं डरार पर पुष्पा के पास बैठ गए । पुष्पा उठ कर हँसिया उठा ली ।
“बैठ ना पुष्पा, कल तो हो ही जाएगा”
“आज काटूँगी तब कल होगा, नहीं तो परसो होगा”
“ठीक है… सुन तो…”
“क्या”
“एक चीज देनी है , हाथ खोल”, पुष्पा ने हाथ बढ़ा दिया । अनिरूद्ध भाई ने उस पर मुड़ा हुआ सौ का एक नोट रख दिया ।
“ये क्या है?”
“रुपिया है”
“क्यो?”
“एक बार तू मांगी नहीं थी , बहुत पहले और मेरे पास दस रुपये भी नहीं थे । आज है । मै कमाता हूँ न पुष्पा ।“
“ई हम नहीं ले सकती”
“क्यों?”
“ऐसे ही”
“इसके बाद मै तुझसे कुछ नहीं कहुँगा , पर ले लेती तो अच्छा लगता”
पुष्पा हाथ में रुपिया लिये अनिरूद्ध भाई को ताकती रही । अनिरूद्ध भाई सिर उठाये तो उनकी आँख में एक गौरैये की आँख दिखी – जो किसी बरगद की सबसे ऊँची शाख पर, बरसात में , अपने घोसले में अपनी प्रेमिका-गौरैया के पास बैठा हो और बेबेसी से बाहर भींगते हुए लोगों को देखता हो और अपने घोसले की आयु और अपनी जिन्दगी और अपने अण्डों के बारे में सोचता हो ।
“एक बात कहूँ पुष्पा , तू बूरा तो नहीं मानेगी न?,” अनिरूद्ध भाई ने पुष्पा से पूछा ।
बात के समर्थन में पुष्पा ने गर्दन उचका दिया । पुष्पा चुप थी ।
“मैं तुझसे प्यार करता हूँ पुष्पा”, अनिरूद्ध भाई पुष्पा की आँखों में देख रहे थे । उस हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार थे , जिसकी शुरुआत पहले आँखों से ही होती है ।
“मुझे मालुम है”, पुष्पा की आवाज में बहुत शुष्कता थी- आंसुओं के कार्य शब्द कर रहे थे ।
पुष्पा का हाथ थामे अनिरूद्ध भाई खेत के डरार पर बैठे रहे । पुष्पा निर्वेद रूप से बैठी रही- अनिरूद्ध भाई के हवाले में । भावों के आदान-प्रदान करने वाले शब्द असमर्थ हो चुके थे । आँखें स्थिर हो चुकी थीं ।
“पुष्पा तू मुझसे शादी करेगी?”, इस पूरे शान्त वातावरण में अनिरूद्ध भाई का यह शब्द पुष्पा को ऐसे जान पड़ा मानो दूर आकाश में, चिड़ियाँ आपस में कतार बनाकर उड़ रही हो , और बातें कर रही हों – जिसकी आवाज यहाँ तक नहीं सुनाई पड़ती सिर्फ महसूस की जा सकती है ।
“अगले दिन सूरज के सर पर चढ़ने से पहले यह कटनी कर लेनी है”, मानो अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए दो गौरैये – पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका – आपस में बातें कर रहे हों ।
“न वो अगला दिन होगा, न ये सूरज होगा, न वो प्रचण्ड धुप होगी पुष्पा”, पुष्पा की हथेली को अपने दोनो हाथों में छुपाये एक पागल की भाँति कह रहे थे अनिरूद्ध भाई , “ दूसरा दिन, दूसरा सूरज और एक शुष्क बयार में इन पंछियों के तरह उड़ते हुए हम होंगे पुष्पा”, अनिरूद्ध भाई ने पुष्पा की हथेली को चूम लिया ।
पुष्पा की आँखे सजल थीं ।आँखों में उगते हुए सूरज सी धाही थी । पुष्पा के मुख पर कुछ-कुछ हँसी जैसे भाव थे । पुष्पा की हँसी को अनिरूद्ध भाई पहली बार इतने करीब से देख रहे थे । वे उस हँसी को छू सकते थे । पकड़ सकते थे । एक रोएँदार हँसी हर कहीं उड़ रही थी , अनिरूद्ध भाई उस पर फूँक सकते थे ।
कुछ-कुछ अंधेरा हो रहा था । पुष्पा अनिरूद्ध भाई को देख रही थी । अनिरूद्ध भाई ऊपर आकाश में पंछियों को अपने घोसले की ओर लौटते हुए देख रहे थे ।
पुष्पा के लिए यह सब एक सुन्दर दृश्य था । सुखद स्वप्न ।
अनिरूद्ध भाई के लिए एक सुन्दर राग । बेमेल और मद्धिम चूड़ियों की खनक- सूरबद्ध , लयबद्ध , नूरबद्ध…
“सच्ची में?”
पनिआयी आँखें स्मृतियों की खोह में धँसती चली जाती हैं- और हँसते हैं बूढ़े अनिरूद्ध भाई
-“नहीं रे… जादू”





शनिवार, 17 दिसंबर 2011

एक खुली हुई दोपहर - रविन्द्र आरोही


सच का दावा करना आज-कल हर गढ़ी हुई कहानी का दस्तूर है।बहरहाल मेरी वाली कहानी सच में सच्ची है -बोर्खेज

            जिन्दगी में वह कॉलेजिया एपिसोड के बाद वाला हिस्सा था- कुछ भी बन जाने से ठीक पहले वाला । आस-पास का दृश्य उतना ही फिल्मी था, जितना कि अमूमन हुआ करता है- चम्मच भर ।

            उस रात मुझे नींद नहीं आई थी और मैं भर रात एक हत्या की साजिश रचता रहा था ।

            ऐसा अक्सर होता था कि रात जब नींद नहीं आती , मैं हत्या की नई- नई तरकीबें सोचता रहता । उन दिनों हर गई शाम थोड़ी बूँदा-बाँदी हो ही जाती थी- आकाश साफ और शहर डेढ़ ईंच कीचड़ में सन जाता । फिर चुल्हे में बची राख जितनी गर्म और उतनी ही काली एक रात बिल्ली के पाँव से खिसक आती । सीलन भरे मेरे तकिये के पास , रात के पासंग के मानिंद एक हत्या की लगभग सत्तइस-अट्ठाइस तरकीबें जमा हो जातीं-जिन्हें मैं कहीं भी, कभी भी दुहरा सकता था । फर्ज करें जूता का फीता बाँधते घड़ी मै मन ही मन तीन तरकीबें दुहरा लेता । ब्रश करते घड़ी आठ । नहाने के लिए , नहाने से पहले बाल्टी के पानी में हाथ डुबोए ग्यारह-बारह तरकीबें । साइकिल चलाते या पैदल बाजार जाते भी मैं मन ही मन दुहराता रहता-तब मैंने गौर किया और बहुत बार बहुतों ने टोका भी कि मै रास्ते में चलते चलते बड़बड़ाता हूँ और मुस्कुराता भी हूँ । एक आध बार कुछ ने मेरा पीछा भी किया और मेरे पीछे जोर-जोर से बेशर्मी वाली हँसी भी हँसे । तब से बजार और भीड़-भाड़ वाली जगह से घबराहट होती है ।

दरअसल ये बड़बड़ाने वाली आदत मेरी माँ में थी । जिन दिनो बड़े भाई साहब कमाने गए थे और तीन सालों तक उनका कोई अता पता नहीं चला था । माँ उन्हीं दिनो आँखें खोले बैठी रहती और उसके होठों से हमेशा फुसफुसाहट होते रहते-पूछने पर कहती कि भगवान जी से बातें कर रही हूँ , तुम लोग सो जाओ । मै और दीदी वहीं सो जाते और धीरे-धीरे पूरा कमरा अंधेरे फुसफुसाहटों से भर जाता । वे फुसफुसाहटें देर रात को , जब हम पूरी नींद में होते , इतनी अधिक हो जाती कि हम उन्हें अपने सपनों में महसूस करते । इतनी तेज , इतनी कि हम जग जाते , जब माँ दहाड़ें मार कर चिल्लाना शुरू करती । घर के सभी लोग जग जाते और बुआ के जोर जोर से कल चलाने की आवाज सुनाई पड़ती । बाबा दरवाजे के सामने बैठ कर रोते और माँ को कमरे से निकाल कर ,  आंगन में अमरुद के नीचे लेटा दिया जाता । माँ के शरीर पर अस्त-व्यस्त कपड़े और खुले बाल- बुआ उस पर घड़ो ठंडा पानी उढ़ेल देती । माँ की साँस फूलने लगती । वह जैसे समन्दर में डूब रही हो , जोर जोर से हाँफते हुए बाहर निकलती और अंतत: अचेत होकर वहीं चितान लेट जाती । अचेतन में उसकी साँसे और जोर जोर से फूलती , जो उस के सीने पर उतरती-चढ़ती साफ साफ दिखती थी । उस रात माँ को खो देने का भय और दुबारा जोरों की भूख लगती । ऐसी भूख जिसे मैनें अपनी बेरोजगारी के दिनो में भी दुबारा महसूस नहीं किया  वो मरोड़ फिर कभी नहीं उठी ।

उस रात की सुबह बड़ी बेशर्म होती , धूप जल्दी चढ़ आती थी । बुआ चाय बनाती और सूजे मुँह माँ चाय पीती । उस सुबह माँ से हम आँखें नहीं मिला पाते । उस सुबह कोई किसी पर गुस्सा नहीं करता । हमलोग बाहर खेलने नहीं जाते । माँ बहुत देर बाद हम से खाना  खाने को पूछती , जब हम खा चुके होते थे । ठेठ दोपहर माँ एक बार मुस्कुराती और हमें सीने से लगा कर कहती कि मै नहीं मरूंगी । और, हम रो पड़ते ।

काश मेरी तरह , एक धक धक सफेद कागज पर पेंसिल की लकीर जितनी सपाट-सी उस दोपहर में दीदी की रुलाई को आप भी महसूस कर पाते । उन दिनों के पुराने अखबारों को आप निकालें तो पायेंगे कि वो चुपचाप बीत जाने वाली एक दूपहर थी । अखबारों में बच्चों की कहानी कविताओं के अलावे कोई घटना नहीं घटती थी ।

           बचपन की वैसी कई दोपहरें जो दलान में बैठ कर हमने अपनी माँ के साथ काटे थे- हमे जुबानी याद थी।

उन्हीं दिनों सूखी नहर सी माँ की  आँखें दूर तक किसी को देखतीं और देर तक पहचानती थी । उसकी मस्तिष्क की सारी ऊर्जा लोगों के पहचान में जाया होती थी । बचपन से अब तक के सारे लोगों को वो उँगलियों के पोरों पर दुहराती रहती ।

            छुट्टी वाली गरमी की एक दोपहर में माँ ओसारे में बैठी थी । मै,दीदी और चाचा का लड़का पिंकू वहीं खेल रहे थे । एक साँवले रंग के पैंट कुर्ते वाले आदमी ने बाबूजी का नाम पूछा और माँ के हाथ एक चिट्ठी पकड़ा गया । वह हमारा डाकिया नहीं था- अपने डाकिये की कई निशानी हमें जबानी याद थी । पर   उस साँवले रंग के पैंट-कुर्ते वाले आदमी का चेहरा-मोहरा इतना साधारण था कि वह दुबारा कुछ और बन कर हमारे सामने आता तो हम उसे नहीं पहचान पाते । वह आदमी पैदल ही आया था,  पैदल ही बिला गया । हमारे लिये भैया की मृत्यु की वही तिथि थी । माँ की जेवरातों से कीमती और पिता की बेरोजगारी से बड़ी बीमारी से उनकी मौत , एक सरकारी अस्पताल में हम सबको इकट्ठे याद करते हुए हुई थी ।

इस चिट्ठी वाली दोपहर से लेकर मरने की एक निश्चित भोर तक तक माँ आँखें खोले बैठी रहती । उसकी आखों मे हमेशा दिन रहता । अनिद्रा के कारण उसका मुँह हमेशा सूजा रहता और आँखों के कोरों के पास गाल भींगे रहते । उसी दरम्यान वह चीजों को भुलने के साथ-साथ अपनी फुसफुसाहट वाली आदत भी भूल रही थी । और तभी अचानक यह बीमारी मुझमे आ गई थी ।

            अपनी इस बीमारी को ठीक से याद करना चाहूँ तो माँ के घर में टंगा वो तारीख वाला कैलेण्डर याद आता है । भैया के अचानक गायब हो जाने तक से माँ के मरने तक हमारे पूरे घर में वही एक कैलेण्डर था । उन सात सालों के ऊहा पोहों  के बीच वही एक कैलेण्डर जिसमे अलग-अलग सालों के महीने और दिन दर्ज थे । यही गड़बड़-झाला है कि हमारे घर और हमारे बचपन के वो सात साल के एक-एक दिन झाऊ के जंगल की तरह एक-दूजे में गुथे-बिथे से हैं । खाली गिलास-सा कोई अकेला दिन जब हम याद करने की तरह निकालते तब बाकी के दिन भी उससे लगे-फदे इस तरह झनझनाहट के साथ हमारे आँगन के फर्श पर गिरते कि पूरा घर जग जाता । घर के सभी लोग आंगन में आ कर एक-एक दिन को उठाते और बीना किसी को डाँटे चुपचाप एकोराह करते-  इस हिदायत के साथ कि बेमतलब कोई भी इन्हें न छुआ करे । यह अक्सर खाकर सोने के बाद गहरे रात का समय होता था ।

            इन सात सालों के बीच सिर्फ माँ के घर में टंगे उस एक ही कैलेण्डर का फायदा ये था कि हम उस बीच के तमाम घटनाओं को अलग-अलग सालों में न खोजकर , एक ही कैलेण्डर में , एक मुस्त पकड़ लेते । इस तरह किसी भी साल की घटना पिछले महीने की लगती । तब हम आस पास जी रहे थे सिर्फ जनवरी से दिसम्बर तक ।

            ये चलते-चलते बड़बड़ाने वाली आदत को बाद में माधुरी ने भी टोका था । नीम के पत्ते जितनी छोटी और कड़वी एक तात्कालिक शर्म तो आई थी पर क्या कहें कि ये आदत मेरे अकेले का घोर मनोरंजन था ।

                                      

सोमवार, 27 जून 2011

एक तोते का जन्म पहली बार एक कहानी में हुआ था



शीर्षक एक
एक तोते का जन्म पहली बार एक कहानी में हुआ था, दुनिया ने पहली
कहानी एक तोते के मुँह सुनी थी

शीर्षक दो
खाली दिनों में लोकबाबू की जंगल-गाथा



इधर के दिनों में यह कहानी कई तरह से शुरू हो सकती थी, पर जिस समय इस कहानी की महज एक ही शुरुआत थी तब खाली, सूनी, लम्बी पगडंडियों पर बेढब दोपहरें खाली कनस्तरों-सी बजती थी। तब के दिनों में पेड़ों stसे पत्ते और फूल बहुत झरते थे-फल पक कर चू जाते। उन्हीं दिनों लोकबाबू को फूल बहुत अच्छे लगते और उन्हें फूलों को देख दया आती थी। दुनिया में और भी कई चीजें थीं जो लोकबाबू को भाती थी और उन तमाम भाने वाली चीजों के प्रति उनके मन में दया जैसी भाव थी-करुणा जैसी भी।
होता यूँ था कि कभी-कभार चीजें अच्छी लगनी बन्द हो जाती पर उसके हिस्से की दया और करुणा लोकबाबू के अन्दर ज्यों कि त्यों बनी रहती।
हमारी दुनियाँ में जब बहुत कम कथायें थीं। उस समय भी लोकबाबू के पास, हमारे लिये, बेतरतिबी से गढ़ी हुई अनेक कथायें थीं। और तब लोकबाबू हमारे बीच एक खाली और फुरसताह दिन की तरह थे।
जाड़े की रातों में रजाई में घुस कर हम जवान हो रहे थे। कहने की गरज ये कि बीस पैसे रोज के भाड़े पर नागराज और चाचा चौधरी का कॉमिक्स पढ़ना हमने छोड़ दिया था। हम भूतनाथ महाविद्यालय जाने लगे थे। वहाँ जिन चार चीजों से हमारा साबका पड़ा, उनका महत्व बस इतना कि हमारे गाँव के बहुत बाहर से जो एक नहर गुजरती थी, कहते हैं, नेपाल से आती थी। उस पर एक पुराना पुल था। उस पर से चार चक्के की गाड़ियाँ बड़ी सावधानी से गुजरती थीं। थोड़ी भी दायें-बायें हो तो पुल की दीवार से रगड़ जाये। उस पुल से हर आदमी एक दहशत में गुजरता था। लोकबाबू जब पुल से गुजरते, बस की खिड़की से नहर के पानी को प्रणाम करते, इस तरह देखा-देखी सब करते। महिलायें ज्यादा करतीं। वह पुल ऐसा नहीं था जिस पर बैठ कर किसी लड़की के साथ प्रेम किया जाय या किसी बच्चे से कहा जाय- ओ देखो पुल! मतलब कि उस पुल का एक पुल होने के अलावा कोई अलग से मतलब नहीं था। हमारी जिन्दगी में आई वे चार चीजें भी बस उसी पुल की तरह, अपने मतलब के साथ थीं।
साइकिल, सिगरेट, जैक्सन और गुलशन नन्दा
चुँकि महाविद्यालय गाँव से चार किलोमीटर दूर था सो साइकिल थी। गाँव की तरह साइकिल पुरानी थी। चाचा बातों-बातों में कहते कि साइकिल का बस फ्रेम ही पुराना है, बाकी सब नया ही समझो। फिर भी साइकिल चलती थी तो अक्सर आवाज होती थी। गाँव के चलने में अक्सर आवाज नहीं होती। गाँव में कभी-कभार चोरियाँ हो जाती सो कभी-कभार आवाज भी होती थी। रात के समय चाचा साइकिल को सिक्कड़ से बाँध कर आँगन में रखते थे। गाँव में साइकिल की चोरी अक्सर होती।
गाँव में ट्रैक्टर चलाने सिर्फ तीन को आता। बहुतों को साइकिल चलाने नहीं आती और बहुतों को पता भी नहीं चलता था कि बहुतों को साइकिल चलाने नहीं आती। गाँव में प्रेम प्रसंग ऐसे ही फलते-फूलते थे। लड़के नैनीताल भाग जाते, लड़कियाँ पास के रेलवे स्टेशन पर पकड़ी जातीं।
गाँव में गरमी के सीजन में शादियाँ होतीं, लोग जाड़े में बूढ़े हो कर मरने लगते। मरने वाले के अनुपात पर जाड़े की डिग्री मापी जाती। जाड़े में हुई शादियाँ, लोगों को दिनो-दिन तक याद रहती। कलर्क बाबू जब मर गये और गाँव के लोग नहर के बाँध पर उन्हें जलाने ले गये- वह गरमी का कोई महीना था। हम सब सरकारी शीशम के नीचे कलर्क बाबू के जल्दी जलने का इन्तजार कर रहे थे। गरमी के महीने में हवा चौतरफा चलती थी सो आग की लपटें और तेज हो जाती थीं। दीक्षित जी कहते- सोमवारी एकादशी में मरना अच्छा होता है। बहुत देर बाद बहुत दूर बैठे प्राइमरी वाले गणेश मास्टर ने कहा कि कलर्क बाबू बढ़िया आदमी थे और उससे भी बहुत बाद में कहा कि उन्हें साइकिल चलाने नहीं आती थी। गणेश मास्टर की बातों पर न जाने क्यों हमे सहज विश्वास नहीं हुआ। किसी के चिता पर कोई झूठ कैसे बोल सकता था भला, और वो भी मरने वाले के बारे में। hहम याद नही कर पा रहे थे कि कलर्क बाबू को साइकिल चलाने नहीं आती थी। सहज विश्वास भी नहीं होता था। कई बार हमारे मस्तिष्क में, कलर्क बाबू की फरहर जिन्दगी की रिल, साइकिल पर बैठे हुए घूमता था। गणेश मास्टर पहले बताये होते तो कलर्क बाबू को पैदल चलते देख हम सहज विश्वास कर लेते- अब मरे हुए के नाम पर कोई सट्टा कैसे खेले। आदमी अक्सर मरे हुए के नाम पर व्यापार चलाता है। हमने गणेश मास्टर को एक संदेह की दृष्टि से देखा। गणेश मास्टर एक सरकार की तरह झेप गए।
बहुत बाद यह पता चलता कि कलर्क बाबू की साइकिल नहीं चलाने वाली बात, कलर्क बाबू को किसी भी तरह कथा में जिन्दा रखने की षड़यंत्र मात्र थी। होता यूँ था कि वहाँ की हर कथा में कलर्क बाबू बरबस चले आते और सुनने वालों को बहुत अंत में यह गुप्त बात पता चलती कि कलर्क बाबू को साइकिल चलाने नहीं आती थी।
कलर्क बाबू का नाम लोकबाबू नहीं था। गोपी चन्द्र था। कुछ लोग उन्हें गोपचन, गोपचन भी कहते थे। लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था। लोग उन्हे लोकबाबू, लोकबाबू कहते। चुकि किसी भी कथा में कलर्क बाबू के बरबस आ जाने से अक्सर सुनने वाले को भ्रम होता था, सो अक्सर रुक कर मूल कथा से कलर्क बाबू वाली कथा को बिलगाना पड़ता था कि ये ये थे और ये ये- अर्थात कलर्क बाबू कलर्क बाबू थे और लोकबाबू लोकबाबू ।
...हां तो हम थे कि लोकबाबू का नाम आलोक नाथ राय था, लोग उन्हें लोकबाबू लोकबाबू कहते थे।
जहाँ दुनिया एक माइक्रो-चीप में समाई जाती थी। लोग चाँद पर रहने, घर बसाने, होटल-वीयरवार खोलने, सहवास करने, हनीमून मनाने, बच्चे पैदा करने की बात सोच रहे थे। वहीं इस ओवरटेक वाली टुच्ची दुनिया में आलोक बाबू के ’आ’ स्वर का लोप कब, कहाँ, कैसे हुआ, कौन सोचे भला। इतना सोचने का फालतू समय इस अजीब सी बनती जा रही दुनिया में किसी के पास न था- बात बस इतनी सी थी कि आलोक बाबू लोकबाबू बन गये बस!
लोकबाबू ने अपने जीवन में न जाने कितनी नौकरियाँ छोड़ी और न जाने कितने मुहावरे गढ़े। मैं यहाँ छुटी हुई नौकरियों और गढ़े गये मुहावरों की बात नहीं करूंगा।
बात, हर बार छुटे रह जाते लोकबाबू की...
गाँव से सोलह किलोमीटर पश्चिम ’भोरे’ से दो बसें, गाँव के पंद्रह किलोमीटर पूरब मीरगंज टाउन को जाती थीं। उस रुट में सिर्फ दो ही बसें चलती थी- अप डाउन। सुबह नौ से शाम पाँच तक। जो बस नौ बजे भोरे से छुटती वह पौने दस, दस तक गाँव का चौराहा शंकर मोड़ पर पहुँचती। लोकबाबू की वह सवारी थी। लोकबाबू उसके असवारी थे। बस रोज छुटते छुटते रह जाती। लोकबाबू रोज छुटते छुटते रह जाते। महीने में एक-आध बार ऐसा भी होता कि लोकबाबू रहते रहते छुट भी जाते।
जब लोकबाबू रहते रह्ते छुट गए होते, चौराहे पर खड़े किसी सवारी की राह तकते और अंततः हमारी साइकिल के पीछे कैरियर पर असवार हो जाते। तब छुटे रह गये लोकबाबू तीन लोगों को गालियाँ देते मन ही मन- पत्नी, भैंस और एक खास मुहावरा बनाने वाले आदिम आदमी को। पत्नी का सम्बन्ध गालियों से इस बावत जुड़ता कि उसने लोकबाबू का अण्डर वियर सुखा कर न जाने कहाँ रखा था कि ढूढ़ते-ढूढ़ते देर हुई। लोकबाबू जब गरम होते, पत्नी धीरे से कहती, चिल्लाइये मत स्थिरे रखा है, मिल जायेगा। भैंस की हाल ये कि लोक बाबू कपड़ा पहन कर तैयार होते कि कोई बाहर से चिल्लाता- ऐ लोकबाबू! भैंस पगहा तूड़ा कर भर गाँव चौकड़ी भर रही है। और लोकबाबू दौड़ पड़ते।
लोकबाबू जब पत्नी को गाली देते, पत्नी को भैंस बोलते। भैंस को देते तब भैंस को साली। पर दोनो सूरतों में वह मुहावरे वाला आदिम आदमी कॉमन होता, जिसने कहा होगा कि ’बस, ट्रेन और लड़की के पीछे मत भागो एक जाएगी तो दूसरी आएगी।’ साले को क्या पता कि दूसरी के आने तक नौकरी चली जायेगी- लोक बाबू कहते।
इस तरह एक रोज रोज-रोज के छुटे लोकबाबू ने हमारी साइकिल के कैरियर पर असवार होकर हमारा हाल-चाल पूछा और हमे एक कवि की तीन पंक्तियाँ सुनाई। कवि का नाम धुमिल था और कविता में वैश्या और हिजड़े टाईप के कुछ शब्द थे।
ऐसा बहुत सम्भव है कि अब तक की इस कहानी से आपका बहुत सम्बन्ध नहीं बैठता हो, ठीक उसी तरह जैसे कि कहानी के नाम पर ऊपर किए गए बकवास से शुरू हो रही मूल कहानी का बहुत सम्बन्ध नहीं है। पाठक चाहें तो ऊपरी पैराग्राफ को छोड़ भी सकते हैं। समय बहुत नहीं हो तो कहानी यहाँ से भी शुरू हो सकती है।
समय को ले कर एक फिलॉस्फी मैने लोकबाबू से मारी थी- आप समझ नहीं रहे लोकबाबू, कमप्यूटर का जमाना है, आधा ’न’, आधा ’म’ लिखने में दिक्कत होती है। कैरियर पर बैठै लोकबाबू थोड़े व्यवस्थित हुए, हैण्डल चकमका गई। मैने फिर कहा, इसीलिए सब जगह बिन्दी लगाई जाती है।
मेरा अनुमान था कि बातों में ’कमप्यूटर’ शब्द आते ही लोकबाबू थोड़ा हिल गये होंगे।
-चुस्त पैंट पहनने में दिक्कत नहीं होती? आधा ’म’, आधा ’न’ लिखने में ज्यादा दिक्कत होती है? गुजराती, मराठी, तमिल, क्न्नड़, नेपाली वाले कमप्यूटर नहीं चलाते, सिर्फ हिन्दी वाले ही चलाते हैं? यही सब करके तो आप लोग भाषा और व्याकरण का (बीऽऽऽऽप) मार दिये। ई सब कौन (बीऽऽऽऽप) पढ़ाता है आपको?
लगा नहीं कि लोक बाबू मुझे डाँट रहे हैं। यूँ लगा कि हम किसी ईरानी फिल्म की समीक्षा सुन रहे हैं। लोकबाबू जोर जोर से कुछ समझा रहे थे, मैं तेज तेज पैडेल मारे जा रहा था।
यह एक दृश्य था। जबकि दृश्य कुछ इस तरह होना था कि कहानी में मुझे, सिगरेट पीते हुए एक हीरो की तरह एंट्री मारनी थी, पर ऐसा नहीं हुआ। मैने कवितायें लिखनी शुरू कर दी। लाल छींटदार, ढीला-ढाला शर्ट पहनकर लहराते हुए साइकिल से कॉलेज जाना था, पर ऐसा नहीं हुआ। यह सब मेरे दोस्तों के साथ हुआ। और मेरे हिस्से, साइकिल के कैरियर पर हर रोज के छुटे लोकबाबू असवार हुए। और इस तरह साइकिल के कैरियर से ही मैंने दुनिया का आधा साहित्य पढ़ लिया।
दुनिया की हर चीज पर लोकबाबू के चश्मे का पावर सही-सही फिट बैठता था। कैरियर पर बैठे लोकबाबू कभी कभी ऐसी बातें बतलाते जो युवा पीढ़ी से लेकर घरेलू औरतों तक के काम आ सकते थे कि ’अखबार में लिखे राशिफल पर विश्चास मत करो, वह हम अपने मन से बना-बना कर लिखते हैं। कोशिस करते हैं कि सब का अच्छा-अच्छा लिखें और लिखते भी हैं। सिर्फ तुला राशि का गड़बड़ लिखते हैं।’ पत्नी तुला राशि की थी। एक बार लिखा था, ’पति की सेवा करो, घर में धन की बारिश होगी- इस तरह।
-लोकबाबू मेरा क्या है?
-कन्या राशि है। राशिफल अखबार में पढ़ लेना। साइकिल दो, मैं लेट हो रहा हूँ।
लोक बाबू जितने सुलझे हुए आदमी थे, उनका काम उतना ही उलझाऊ था- लाँगझारु। लोकबाबू ’दुनिया-जगत’ नामक एक छ्ह पेजिया अखबार में प्रूफरिडर थे। उनके पास तीन सीट कपड़े थे। दो में ड्यूटी करते, तीसरे में पहुनाई जाते। जाड़े के लिये एक जोड़ी जूता-मोजा, एक फुल स्वेटर, एक बन्दर छाप टोपी और एक ऊनी आसमानी चद्दर था। गरमी के लिये, जाड़ा वाला कपड़ा हटाकर जो बचता, वही था। बरसात में एक छाता और एक जोड़ी प्लास्टिक का जूता अलग से जुड़ता था। और एक स्याही बोकरती सवा रुपये की फाउण्टेन कलम बरहोमासा थी। तीनों कुर्ते की जेब पर उसके निशान थे। जब भी लोकबाबू से बात करते समय कोई उनके कुर्ते की जेब पर नज़रें गड़ता, लोकबाबू देखने वाले के चेहरे का गणित पढ़ते हुए मन्द-मन्द मुस्कुराते, मुस्कुराहट में अगहनी बाजरे सा एक लालछाँऊ भाव फुटता कि हम पढ़े-लिखे आदमी हैं, चोर नहीं हैं- लोकबाबू के साथ ऐसा अक्सर होता था।
लोकबाबू का घर गाँव के पश्चिमी सीमाने से थोड़ा और किनारे पर था। घर के किनारे एक नीम का पेड़ था। सुबह से नीम की छाँव दूसरे गाँव के सीमाने में गिरता था। तिजहरिया को नीम अपनी छाँव को समेट कर इस गाँव में आ बसता। लोकबाबू का खानदान पिछले तीन पीढ़ियों से इस गाँव में आकर नवरसा पर बसा था। लोकबाबू आज भी गाँव में एक पेईंग-गेस्ट की तरह रहते थे। साफ-सुथरा, चुप-चाप कि कुछ भी बोलें तो मात्रा गड़बड़ हो जाए कि कब आकर एडिटर डाँट दे कि ’पुनर्प्रकाशन’ होता है कि ’पुर्नप्रकाशन’? लोकबाबू हर जगह सतर्क, चौकस और चुप रहते। नीम का पेड़, बरसों से, चुप-चाप, भर गाँव को दातुन बाँटता था। जैसे आम का पेड़ आम बाँटता है।
हमारे आवारा दिनों की जितनी भी बड़ी और बेवकूफ घटनायें थीं चुपके से लोकबाबू के चश्मे के नीचे से होकर गुजरी थीं। उन्होंने हर घटना का प्रूफ देखा था। हर घटना का तारकुन ’कु’ बारझुन ’कू’ ठीक किया था।
मृत्यु और चश्मे की बड़ी सरपट फिलॉस्फी है। दोनों कब चढ़नी शुरू होती है- पता नहीं चलता।
अब लोकबाबू बस के पीछे नहीं भागते थे। शान के साथ चौराहे तक आते, बस मिली तो मिली नहीं तो साइकिल से।
साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे। चेनकवर चेन से रगड़ खा रही थी और लोकबाबू के पीछे एक आवाज छुटती चली जा रही थी- तकुन ’कु’, बरझुन ’कू’। मैने चिल्लाकर कहा- लोकबाबू, मेरा ठीक-ठीक लिखिएगा, कन्या राशि।
लोकबाबू पीछे मुड़कर चिल्ला कर बोले- ’शनि का साढ़ेसाती है, नीलम धारण करो, बाकी मैं देख लूंगा।’ और साइकिल सड़क से उतर गई।
और यह उन्हीं दिनों की घटना है, जब इतिहास में मुझे सौ में तेइस नम्बर मिले थे और मैंने एक कहानीकार बनने की बात सोची थी। तब मेरे पास कुल अधूरी और सिर्फ अधूरी मिलाकर सात एकतरफा प्रेम कहानियाँ थीं।
दिन तालाब के किनारे चुपचाप खड़ा रहता। शाम ढले लड़कियाँ कोरस में हँसती थीं। सब तरफ अच्छा-अच्छा घटने के आसार बने रहते थे कि लोकबाबू एक बढ़िया आदमी थे कि उनके अखबार में कहानियाँ भी छपती थी और लोकबाबू ने उन तमाम कहानियों के हीरोइनों के ’अस्तन’ को ’स्तन’ किया था।
लोकबाबू देर शाम साइकिल चलाते हुए लौटे थे। ऑफिस से महाविद्यालय तक लौटे थे। पूरब से पश्चिम में लौटे थे। दोपहर से शाम में लौटे थे। लौटे तो साथ-साथ कैरियर पर बैठी एक उदासी भी लौटी थी। कह रहे थे कि मालिक कह रहा है, अखबार घाटे में जा रहा है। उन्होंने यह भी बतलाया कि उनकी उम्र सैंतालीस की है। उन्हें उदास देखकर मैंने आधी दर्जन अधूरी प्रेम कहानी वाली बात छुपा ली।
महाविद्यालय से डेढ़ किलोमीटर दूर बड़कागाँव में हम लोगों ने चाय पी। लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय पीते। उन्हे कोई बीमारी नहीं थी। चाय दुकान पर खड़ेs लोकबाबू जगलाल को बुला कर धीरे से कहते, बिना चीनी वाली एक और चीनी वाली एक। जगलाल बहुत ही लाचारी से लोकबाबू को देखता, उसकी आँखों में लोकबाबू शरीफ-शरीफ बीमार लगते। वह लोकबाबू को ताक कर थोड़ा मुस्कुरा देता। लोकबाबू थोड़ा बीमार हो जाते। वह मुस्कुरा कर लोकबाबू की चाय में दो दाना चीनी मिला देता। वह इस फिराक में अक्सर रहता कि जिस दिन लोकबाबू बिना चीनी वाली चाय कहना भूल जाएंगे, उस दिन उन्हें वह चीनी वाली- कम चीनी वाली- चाय पिला देगा। लोकबाबू को बिना चीनी वाली चाय देने में जगलाल को थोड़ा दोष सा कुछ लगता था और उसका मन फीका-फीका हो जाता।जगलाल हमेशा इस फिराक में रहता कि किसी दिन लोकबाबू के जेब में पैसा नहीं रहा, उस दिन भी वह उन्हें चाय पीला देगा और कहेगा, कोई बात नहीं जाइए, फिर कभी दे दीजिएगा, इनसान से ही तो भूल गलती होती है न। इस तरह उसका दोष कट जाएगा। ऐसा लोकबाबू को भी लगता था।
लोकबाबू की दाढ़ी एक दिन की बढ़ी हुई थी। एक दिन की दाढ़ी में लोकबाबू अक्सर उदास लगते। चेहरे पर एक दिन की हरी दाढ़ी अक्सर रहती। टोपाज ब्लेड से दाढी बनाते और सेविंग क्रिम नहीं लगाते थे। लाइफ बॉय साबून मलते थे। जिस दिन दाढ़ी बनाते उस दिन भी एक दिन जितनी दाढ़ी छुट जाती।
चाय पी कर, हम लोग दुबारा साइकिल नाधे तब मैंने चुपके से आधी दर्जन प्रेम कहानी वाली बात बता दी। पहली बार लोकबाबू ने दिलीप कुमार की तरह रियेक्ट किया- ना मुन्ना... ना मुन्ना ना..., वाले स्टाइल में, पर यह बदला हुआ समय था। लोकबाबू शाहरुख की तरह लगे- उम्म्म्म्म न्न्न्नाह वाला स्टाइल था। लोकबाबू बाजिगर वाला चश्मा पहने थे.... गरीबी पर लिखो, भूखमरी पर लिखो, चोर पर लिखो, दलाल पर लिखो पर प्रेम कहानी मत लिखो... उम्म्म्म न्न्नाह।
और यही वह जगह थी, जहाँ से कई बार हम पक्की सड़क छोड़ कर खेतों के बीच से होते हुए, मैदान पार कर, पगडण्डी पकड़ लेते। जल्दी पहुँचने की गरज से। वहीं बीच मैदान में साइकिल रोक कर लोकबाबू ने झोला से एक पोस्टकार्ड निकाल कर दिखलाया। उनका चेहरा बर उठा। पोस्टकार्ड लोकबाबू के नाम था। पोस्टकार्ड पर एक गन्दे राइटिंग में उनको धन्यवाद दिया गया था। भेजने वाले का नाम विष्णु प्रभाकर था। लोकबाबू के घर और दस-बारह ऐसे ही पोस्टकार्ड थे- दूसरे-तीसरे साहित्यकारों के लिखे।
लोकबाबू के प्रति इज्जत और बढ़ गई।
-मिलो, सबसे मिलो। परसो वाली कहानी की खासियत देखे थे? लेखक को मोची, पान वाला, सब्जी वाला, ठेला वाला, अण्डा वाला, डाकिया सब का नाम याद है। सबके बारे में पता है। तुम जहाँ साइकिल बनवाते हो उसका नाम तुम्हें पता है? सबके बारे में जानो और जानो कि वहाँ क्या है।– लोकबाबू साइकिल चला रहे थे। मैं थक गया था। कैरियर पर असवार होने से ज्यादा थकान होती थी। फिर भी सुकून रहता कि हम सुस्ता रहे हैं।
-पर लिखूँ किस पर?
कहा तो, उस पेपर बेचने वाले पर लिखो। बहुत गरीब है। रोज पचास किलोमीटर साइकिल चलाता है- पचपन साल का बूढ़ा।
चारों तरफ गेहूँ के खेत बिछे थे। बीच की पतली पगडण्डी, धरती पर राकेट का धुआँ सा दिखता था। लोकबाबू का झोला लेकर, मै पीछे कैरियर पर बैठा था। मै थका जा रहा था। पेड़ो के नीचे बैठे-बैठे लोग सुस्ता रहे थे। एक टिटिहरी हमारे पीछे पीछे बोलती आ रही थी। विरान, शान्त, खेत, खलिहान और सरसराती हवा में एक टिटिहरी की पीछा करती आवाज- प्रेम कहीं नहीं था।
पगडण्डी के बीचोबीच एक जामुन का पेड़ था। रास्ता पेड़ का परिक्रमा कर फिर सीधा हो जाता। वहीं से गुजरते हुए, जामुन पर बैठा तोता बोला -लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगे। साइकिल खेत में डगर गई।
-तब! लिखूँ?
साइकिल मैं चला रहा था। लोकबाबू ने धीरे से कहा- लिखो।
लोकबाबू अपने घर चले गए। घर में पत्नी थी। दो बेटियाँ, एक बेटा था। बेटियों का नाम निधी और रेनू था। मयंक बेटा था। पत्नी के घुटनों में हमेशा दर्द रहता। कभी-कभार चिल्हकता था। लोकबाबू घर में होमियोपैथिक गोलियाँ रखते थे। पत्नी का नाम पेउली था। शाम को सब बच्चे ओसारे में लालटेन बार कर पढ़ रहे थे। लोकबाबू को आते देख सब और जोर-जोर से पढ़ने लगे। उनके बच्चे उन्हे सिर्फ बाबू कहते। दुनिया लोकबाबू कहती। पोस्टकार्ड पर आलोक नाथ राय लिखा था।
लोकबाबू सीधे घर के अन्दर चले गये। पत्नी आँगन में सब्जी काट रही थी। लोकबाबू जब घर में नहीं रहते थे, तब पत्नी ओसारे में बैठे दिन काटती। आँगन में अभी अँजोर था। गरमी में देर तक अँजोर रहता है। पत्नी ने अपना पीढ़ा लोकबाबू की ओर सरका दिया। लोकबाबू पीढ़ा पर बैठ गये।
-मैं आ रहा था कि रास्ते में एक तोता बोला, लोकबाबू।
पत्नी हँसने लगी- अरे ओ महन्त जी का तोता होगा।
-लेकिन, मैंने कभी अपना नाम उसे नहीं बतलाया।
-किसी दुसरे के मुँह सुना होगा।
-तो उसे कैसे पता कि यह मेरा ही नाम है?
-तो तुम्हें कैसे पता कि वह तुम्हें ही बोला?
-अरे, मेरे ऊपर बोला।
-हो सकता है कि वह ऊपर बोला हो और उसी वक्त तुम ठीक उसके नीचे से गुजरे हो।
-पर वो बोला क्यों?
-उसे अच्छा लगता होगा। जैसे लाल मिर्च अच्छी लगती है, वैसे लोकबाबू।
-तो हर कहीं बोलेगा?
-हो सकता है।
-तब तो बदनामी होगी।
-तब क्या करोगे, उसे पकड़ोगे?
-नहीं, मैं पकड़ नहीं पाऊंगा।
-तब, उसे ढेला मारोगे?
-नहीं, तब वह और बोलेगा और गाली भी देगा।
-तब?
-तब, महन्त जी से बोलूंगा।

भूतनाथ महाविद्यालय से गाँव आते वक्त डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जो चौराहा था, वही गाँव से महाविद्यालय जाने में ढ़ाई किलोमीटर की दूरी पर था। चौराहे के बिचोबीच, सड़क की बाईं तरफ एक बरगद का पेड़ था। पेड़ की मोटी डाल पर लटकती एक पीली तख्ती पर लिखा था- ऊँचकागाँव, ब्लॉक ऊँचकागाँव। ऊँचकागाँव को लोग बड़कागाँव बोलते थे। बड़कागाँव कहीं नहीं लिखा था। तख्ती पर लिखे ऊँचकागाँव को सब ऊँचकागाँव पढ़ते थे और बड़कागाँव बोलते थे।
दुनिया में हर कहीं धोखा था फिर भी हम सरकार पर विश्वास कर लेते थे। लोकबाबू कहते सरकार पर विश्वास करो। सरकार लाचार है।
मैंने कहा, छपरा स्टेशन के पीली तख्ती पर छपरा लिखा है- हिन्दी में। अंग्रेजी थोड़ी-थोड़ी आती है सो अंग्रेजी में भी छपरा लिखा है। उर्दू पढ़ने नहीं आती; पर उर्दू में भी छपरा ही लिखा होगा, इतना विश्वास करूँ सरकार पर?
-हाँ, करो, इतना तो जरूर करो- कैरियर पर बैठे लोकबाबू कहते।
-बंगाल में स्टेशनों के नाम तीन भाषाओं में लिखे होते हैं- अंग्रेजी, बांग्ला और हिन्दी में। हिन्दी वाला नाम अक्सर गड़बड़ लिखा होता है- गणेश मास्टर कहते हैं। इसलिए कभी-कभार विश्वास डोलता है। कि हमे भाषा में धोखा दिया जा रहा हो तो? कि हमें चिन्ता होती है- मैं कहता। लोकबाबू कैरियर पर थोड़ा व्यवस्थि हुए तो साइकिल डगमगा गई। एक बच्चा भिड़ते-भिड़ते बच गया। बच्चा दूर जा कर गुस्से में चिल्लाया- ऐ लोकबाबू लउकता नहीं है? लोकबाबू तुरन्त समझ गए कि महन्त जी के तोते ने ही सब जगह उनका नाम प्रचार किया है। नहीं तो इतना छोटा बच्चा उनका नाम आखिर कैसे जानता। लोकबाबू को फिर तोते की हरकत पर चिन्ता हुई। और चिन्तित लोकबाबू ने कहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है। तुम गणेश मास्टर से दूर रहो। वह ऐसा ही भड़काऊ बात सोचता है।
इस बदहवास भागते समय में लोकबाबू ने एक छोटा सा छुईमुई का पौधा लगया था कि दुनिया थोड़ा सा ऑक्सीजन यहाँ से भी ले सके। कुछ दिन और जी सके। लोकबाबू इस व्यवस्था में नुक़्ते जितनी जगह घेरते थे। सबका राशिफल अच्छा-अच्छा लिखते थे कि लोग अपने अच्छे हिस्से से खुश हो सकें- बस।
-मुझे लगता है कि मैं पेपर बेचने वाले पर कहानी नहीं लिख सकता। मैने बहुत पूछा तो उसने सिर्फ अपना नाम बतलाया- मुकेश।
-उसका नाम बदल कर रामसहाय कर दो। कहानी में पेपर बेचने वाले का नाम मुकेश, अच्छा नहीं लगता। बाकी सब मै बतला दूंगा।
-सुनिये ना लोकबाबू, मैंने उन्हें साइकिल पकड़ा दी, उसका नाम बदलना ठीक नहीं होगा। उसके माँ-बाप ने यह नाम बड़ी हसरत से रखा होगा। हमे क्या हक है, किसी का नाम बदलने का।
-कहानीकार के पास बस इतना ही हक तो होता है। बाकी तुम उसे तो बदल नहीं पाओगे। जितना बदल पाते हो बदलो। और रही बात हसरत की तो उस हसरत में कि वह बड़ा हो कर पेपर बेचेगा, नहीं होगा।
महाविद्यालय आ गया था। लोकबाबू साइकिल पर सवार अब चले जा रहे थे। कैरियर पर एक झोला था। झोले में एक पुरानी डायरी, एक अखबार और एक पोस्टकार्ड था। पोस्टकार्ड में लिखा था- आप एक सुदूर गाँव में रह कर हमें इतना पढ़ते हैं, जानकर अच्छा लगा। बहुत-बहुत धन्यवाद- निर्मल।
लोकबाबू बहुत बाद में बी.ए. किए थे। और उन्हें शिक्षक होना था। वे कभी-कभार मास्टर-मास्टर लगते भी थे। बहुत दूर बस से ऑफिस जाते समय बहुतों को लोकबाबू मस्टर ही लगते। मेघदूत बस का कण्डक्टर मोती उन्हें माट्साब पणाम कहता। लोक बाबू धीरे से हाथ उठाकर पणाम-पणाम कहते। उन्हें अच्छा लगता था।
-लोकबाबू! मास्टर पर कहानी लिखें?
-हाँ, जगन्नाथ मस्टर पर लिखो- लोकबाबू ने बड़े उत्साह में कहा।
-जगन्नाथ मास्टर का नाम बदल कर गणेश मास्टर कर दें?
-नही, जगन्नाथ तो ठीक है।
-पर मैंने तो जगन्नाथ मास्टर से पढ़ा ही नहीं है। गणेश मास्टर से पढ़ा है।
-नहीं, जगन्नाथ मास्टर पर लिखो। वे बहुत गरीब थे। दयालु थे, विद्वान थे। हर साल एक लड़के का फीस माफ करते थे- यह कहते हुए लोकबाबू भावुक हो गये। भावुक लोकबाबू ताड़ के पेड़ पर ताकने लगे। ताड़ के पेड़ पर एक कौवा का घोसला था। कौवा शराफत से अपने घोसले के पास बैठा था। जामुन के पेड़ पर तोता का घोसला नहीं था। तोता जहाँ-तहाँ अकेला घूमता था और उत्पात करता था। तोता बाँड़ था। लोकबाबू ने सोचा तोता का भी घोसला होता तो तोता इतना उत्पाती नहीं होता।
ऐसा अक्सर होता कि पता भी नहीं चलता और महाविद्यालय आ जाता। साइकिल पर सवार लोकबाबू जाते हुए बहुत दूर दिखते। कभी-कभी मन करता कि क्लास न करूँ। चुपके से साइकिल के कैरियर पर बैठ जाऊँ, धीरे से कहूँ- लोकबाबू। लोकबाबू ऊपर ताकने लगें। उन्हें लगे कि तोता बोला। तब बहुत बाद मे मैं कहता- मैने बोला, लोकबाबू। और इस झूठ-मूठ के कहे पर सचमुच के खुश हो जाएँ लोकबाबू। और यह देख कर कितनी खुशी, कितनी राहत कि मेरे मुंह से लोकबाबू सुन कर उनके चेहरे की रंगत वापस अपनी जगह लौट आये। ऐसा अक्सर होता।
कॉलेज में हमारे साथ बहुत कम लड़कियाँ पढ़ती थीं। मैं उन सब लड़कियों के पैरों की एड़ियाँ देखता। फटी एड़ियों वाली लड़कियाँ मुझे गरीब-गरीब लगती। मैं उन पर कहानियाँ लिखने के बारे में सोचता। प्रेम कहानी। गरीबी में प्रेम कहानी।
इस तरह मैं सोचता रहता कि साइकिल पर सवार लोकबाबू धीरे-धीरे आ जाते। मै उन्हे गरीबी मे प्रेम कहानी वाला प्लॉट सुनाता। लोकबाबू मायूस हो कर कहते -अखबार मालिक पर कहानी लिखो।
टी.वी. में सैकड़ों चैनल आ गये थे। न जाने कई न्युज चैनल भी। अखबार और पत्रिकायें भी बढ़ी थीं। अब ये दुनिया ब्लैक एण्ड ह्वाइट नहीं रही थी। अखबारों, पत्रिकाओं के प्लास्टिक पेज पर, ब्रैसियर-अण्डरवियर के प्रचार में तैलीय त्वचा वाली नायिकाओं के फोटो छपते थे। जो जितना दिखता था, वो उतना बिकता था। वहीं ये छह पेजिया ’दुनिया-जगत’ उन सारी पत्रिकाओं में पोतन सा दिखता था। यह अखबार साहित्य को ज्यादा कवर करता। रेणु के कई फीचर्स और रिपोतार्ज इसमें छपे थे- बहुत पहले।
इसके संस्थापक एवं संपादक हिन्दी के जाने-माने ललित निबन्धकार पण्डित भैरव प्रसाद थे। इस अखबार से जुड़े और भी कई बड़े नाम थे। यह अखबार 21-फरवरी-1933 को बिहार के मीरगंज नामक एक कुनबे से प्रकाशित हुआ – छिन्दवाड़ा से प्रकाशित साप्ताहिक लोकमित्र-16 फरवरी 1923- के ठीक दस साल बाद। कहते हैं कि दुनिया जगत निकालने से पहले भैरव बाबू तब लोकमित्र से ही जुड़े थे। बाद में, हिन्दी जिलों की प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी को लेकर हुई किसी खींचा-तानी में भैरव बाबू उससे अलग हो गए और यहाँ कलम-दवात लेकर दुनिया-जगत निकालने लगे।
एक समय अपने सम्पादकीय के बल पर यह अखबार हिन्दी के टॉप पाँच अखबारों में शामिल हुआ।
बाबू भैरव प्रसाद ने ही पहली बार दुनिया-जगत के सम्पादकीय में यह खुलासा किया कि 1934 में गाँधी क्यों सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर ग्रामोद्धार एवं अछुतोद्धार के कार्य में जुट गये थे।
कि जवाहर लाल नेहरु के अथक राजनैतिक प्रयासों से नवयुवकों का एक छोटा सा दल, कांग्रेस समाजवादी दल के नाम से, सन्‌ 34 में पटना में गठित हुआ। इस दल के अध्यक्ष नरेन्द्र देव तथा सचिव जयप्रकाश नारायण थे। कौंसिल प्रवेश का विरोधी यह दल, गाँधी की राजनीति का भी घोर आलोचक था।
कहते हैं कि अखबार के इस बेबाक दृष्टि ने उस समय भारत के तमाम बुद्धिजीवियों को अपनी तरफ आकृष्ट किया था और शायद यही वजह थी कि बाद के दिनों में इस अखबार से और भी कई नाम जुड़े जिनमें शिवपूजन जी, फणीश्वर नाथ, रामधारी सिंह, अनन्त नाग, उमाशंकर आदि कई उल्लेखनीय है।
और उन बड़े नामों की फेहरिश्त में एक नाम तारक नाथ राय का भी था।
... और क्या यह एक गर्व था या उसी जैसा कुछ कि लोकबाबू मास्टर न बन पाने के मलाल के बावजूद इस अखबार से जुड़ कर खुश थे। और अब उसी अखबार के बन्द हो जाने की खबर उन्हें कहीं अन्दर तक तोड़ रही थी।
भैरव बाबू का पोता अनुज अखबार का मालिक था। अखबार से इत्तर भी उसके कई कारोबार थे। वह भोजपुरी फिल्मों और शेयर बाजारों में पैसा लगाता था और बहुत बाद के दिनों में दुनिया-जगत के पिछले पन्ने पर, हर तरह के प्रूफ से छन कर आई, भोजपुरी सिनेमाओं की ‘बेबों’ की ब्लैक एण्ड ह्वाइट तस्वीरें छपने लगी थी। बावजूद इसके, अनुज के हाइटेक और रंगीन कारोबारी दुनिया में यह अखबार वाला पोरसन कहीं नहीं फबता था। बहुतों ने उसे सलाह दी कि वह अखबार को बन्द कर स्टारडस्ट या फिल्मी कलियाँ जैसी पत्रिकाएँ निकाले। पर अखबार-पत्रिका वाला काम उसे सिहुर-सिहुर लगता था। वह भोजपुरी का एक चैनल लॉन्च करना चाहता था और उसने अखबार को बन्द करने का निर्णय लिया था।
लोकबाबू अक्सर सोचते कि अपने अखबार में अपना राशिफल अपनी तरह से लिखा जा सकता है, लेकिन दूसरे के अखबार में दूसरे का झूठ अपना राशिफल होगा।
अपना अखबार तो अपनी किस्मत। दूसरे का अखबार मतलब...
लोकबाबू का एक दाँत नकली था। मैंने कभी उनके दाँत के बारे में नहीं पूछा। वे हँसते थे तो सारे दाँतो के बीच नकली दाँत अलग से दिखता था। वे मूँछ रँगते थे। बाल नहीं रँगते। मूँछों की सफेदी को देख कर तारीख का अन्दाजा लगाया जा सकता था। कोई लोकबाबू से पूछता आज सताइस तारीख है क्या? लोकबाबू समझ जाते कि मूँछ के सारे सफेद बाल दिखने लगे हैं। तीन दिन बाद रँग लेना है। एक तारीख को मूँछ काली होती फिर गिनती शुरू...
जस-जस तारीखें बढ़ती, मूँछों के रास्ते लोकबाबू तस-तस अधेड़ लगते। शरीफ-शरीफ अधेड़। अक्सर इन दो विशेषणों के साथ लोग विस्मृत हो जाते हैं। पर बावजूद इन दो विशेषणों के लोकबाबू हमेशा हाइलाइटेड रहे।
देर शाम पसीने से तर लोकबाबू महाविद्यालय के सामने सड़क पर आए। मैं उनके आने का ही इंतजार कर रहा था। उनके राह तकते मैं कभी थकता नहीं था। पाकड़ के नीचे बैठ कर, पचीस पैसे की मुँगफली खाते हुए राह तकता था। लोकबाबू साइकिल चलाते हुए मेरा इंतजार करते पहुँचते। वे इंतजार करते-करते थक जाते। लोकबाबू के मूँछ पर तेइस तारीख का शनिवार था। पसीने से तर लोकबाबू मुझे ताक कर आदतन मुस्कुरा दिये। नकली दाँत दिखा। मुस्कुराहट में सावन का महीना था।
-आज लेट हो गए? मैं पाकड़ के पेड़ के नीचे आपकी राह देख रहा था।
-हाँ, जल्दी-जल्दी आए फिर भी लेट हो गया। आज शनिवार है, फाइनल प्रूफ देखना होता है। रविवार को अखबार निकलता है। और जल्दी चलो नहीं तो बारिश भी हो सकती है। मै इसीलिए जल्दी-जल्दी आया- लोकबाबू एक साँस में कह गए।
हम लोगों ने रास्ते में चाय नहीं पी। बारिश कभी भी हो सकती थी। मैंने कहानी की बात नहीं छेड़ी, सिर्फ एक लड़की की बात बतलाई। लोकबाबू ने मुझसे एक साइकिल की बात बतलाई। उन्होने अपनी पत्नी की मुहदिखाई में एक चाँदी की चेन दी थी और अपनी साइकिल बेंच दी थी। और ये भी कि जब उनके पास साइकिल थी तब उनके बड़े-बड़े बाल थे। और ये भी कि जब वे साइकिल से लहराते हुए चलते तब लोग उन्हे जैक्सन-जैक्सन कहते थे। माइकल जैक्सन।
यह सब बहुत पहले की बात नहीं थी। पर मैंने लोकबाबू के बड़े बाल कभी नहीं देखे थे। लोग बीते समय का हवाला दे कर सट्टा खेलते हैं। मैंने उन्हें संदेह से नहीं देखा। आखिर आदमी अपनों से ही तो झूठ बोलता है। मैं लोकबाबू का अपना था। लोकबाबू अक्सर अकारण झूठ बोलते थे। और चूंकि वे हमेशा चुप-चुप और अकेला रहते सो उनके उम्र का पता किसी को नहीं चलता था। और वे उम्र की बात भी झूठ बोल जाते। लोकबाबू के सभी अपने थे।
लोकबाबू जब घर पहुँचे तब सचमुच का अन्धेरा था। ओसारे में बच्चे पढ़ रहे थे। उनके साथ-साथ लालटेन भी पढ़ रही थी। लालटेन से दूसरा काम नहीं होता। बच्चे कहते यह पढ़ने वाली लालटेन है।
लोकबाबू ने बच्चों को पढ़ते देखा और उन्हें बेटी की शादी की चिन्ता हुई। बड़ी वाली चौदह की थी। वे सीधे आँगन में चले गये। पत्नी अन्धेरे में उनकी राह तक रही थी। उन्होने अन्धेरे में एक गिलास पानी मांगा। पत्नी गुड़ और एक गिलास पानी ले कर उनके सामने खड़ी हो गई। गुड़ साँझ जितना काला और रात जितना मीठा था।
-आज इधर बारिश हुई? लोक बाबू आँगन मे पीढ़ा पर बैठे थे।
-नहीं, उधर हुई?- पत्नी लालटेल का शीशा साफ करने लगी।
-नहीं।
-तो, फिर क्यों पूछे?
-उधर नहीं हुई थी, इसीलिए पूछा?
-उधर हुई होती तो नहीं पूछते?
-नहीं, तब समझ जाता कि इधर भी जरूर हुई होगी।
-उधर नहीं हुई तो क्यों नहीं समझ लिये कि इधर भी जरूर नहीं हुई होगी।
-बाहर रहने पर घर की बारिश की चिन्ता होती है।
-घर में रहने पर बाहर की चिन्ता होती है?
-चिन्ता होती है, पर बारिश की नहीं, तोते की।
-तुमने महन्त जी से कहा?
-हाँ, कहा था।
-उन्होंने क्या कहा?
-कहा कि अब तोता मेरे बस में नहीं है, अब उसकी गलती मेरी गलती नहीं है।
पत्नी ने लालटेन जला दिया। लोक बाबू पत्नी को ताक कर मुस्कुरा दिये। नकली दाँत दिखा। लोक बाबू की आँखें भुरी नहीं थीं। नकली दाँत थोड़ा हल्का भूरा था। पत्नी ने कहा- तुम राज कपूर की तरह लगते हो।
-और तुम नरगिश की तरह।
इतने में पत्नी के हाथ पर सचमुच की दो-चार बारिश की बुँदिया गिरी। पत्नी ने कहा- बरसात।
लोकबाबू ने कहा- प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।
पत्नी ने कहा, धत्‍ श्री चार सौ बीस।
सुबह रविवार था।
रविवार की सुबह लोकबाबू खुश थे। सुबह-सुबह दतुन तोड़ने गए लोकबाबू ने नीम के पेड़ पर एक चिरई का खोंता देखा और खुश हो गए। खुश हो गए कि आज दफ्तर नहीं जाना था। पहुनाई जाना था। उनकी बहन बीमार थी।
लोकबाबू सुबह-सुबह साइकिल मांगने आये।
-अरे! आज नया बूशर्ट पहने हैं? लोकबाबू आज सुन्दर लग रहे थे। मूछों पर भदवारी की पहली तारीख थी। लोकबाबू ‘टाइड सर्फ’ के विज्ञापन वाले लड़के सा चहक कर बोले, धत्‍! ई तो हमरा पुराना बुशर्ट है।
लोकबाबू खुश थे कि पहुनाई जा रहे थे। लोकबाबू दुखी थे कि बहन बीमार थी।
लोकबाबू साइकिल से चले जा रहे थे। मैंने साइकिल का चेनकवर ठीक करवाया था। आज छुट्टी के दिन साइकिल के पीछे कोई आवज नहीं छुट रही थी। लोकबाबू चले जा रहे थे, आज मैं छुटा रह गया था। वे चले जा रहे थे- सीर को एक तरफ झुकाए, ऐसे मानो हर कदम किसी का समर्थन करते जा रहे हों।
सच कहूँ तो अखबार वाला, जगन्नथ मास्टर, गणेश मास्टर या अधुरी प्रेम कहानियों पर मुझे कहानी कभी नहीं लिखनी थी। लोकबाबू से मैंने झूठ बोला था। लोकबाबू अपने थे।
साइकिल पर सवार लोकबाबू चले जा रहे थे, आँख से ओझल होते कि साइकिल रुक गई। लोकबाबू साइकिल से कूद कर उतर गए। साइकिल को स्टेण्ड किया और साइकिल की दाईं तरफ बैठ गए।
मैंने जोर से चिल्लाया- लोकबाबू। लोकबाबू ने ऊपर नहीं देखा। मेरी तरफ देखा। मैं वहाँ तक दौड़ कर गया था।
-लोक बाबू एक कहानी लिखूँ? मैं हाँफ रहा था।

-लिखो।– लोकबाबू सिर नीचे किये चेन चढ़ा रहे थे। परेशान थे कि रास्ते में चेन बार-बार उतरेगा।
-लिखूँ कि एक लोक बाबू थे...
सिर उठाये तो नाक पर चेन की कालिख लगी थी, होठों की दाहिनी कोर पर बरसाती दिन-सा एक भींगी मुस्कान, बाजिगर वाले चश्मे के पीछे लोकबाबू आँखों से खुश थे, बोले- और?
-और कुछ नहीं, ...बस एक बहुत सुदूर गाँव मे एक लोकबाबू रहते थे।
जिन्दगी में वह पहली बार था कि तोता एक जिम्मेवारी के साथ नीम की दिशा में उड़ता चला जा रहा था। लोकबाबू को तोते के बारे में दूसरी तरह की चिन्ता हुई।
कहानी में यह पहली ही बार था कि लोकबाबू ने एक कहानी शुरू करने की दिशा में मारे खुशी के बेपरवाही में कहा था- और!
तोते ने नीम की दिशा में उड़ते-उड़ते बोला
-...कि और एक गुलशन नन्दा।