शनिवार, 17 दिसंबर 2011

एक खुली हुई दोपहर - रविन्द्र आरोही


सच का दावा करना आज-कल हर गढ़ी हुई कहानी का दस्तूर है।बहरहाल मेरी वाली कहानी सच में सच्ची है -बोर्खेज

            जिन्दगी में वह कॉलेजिया एपिसोड के बाद वाला हिस्सा था- कुछ भी बन जाने से ठीक पहले वाला । आस-पास का दृश्य उतना ही फिल्मी था, जितना कि अमूमन हुआ करता है- चम्मच भर ।

            उस रात मुझे नींद नहीं आई थी और मैं भर रात एक हत्या की साजिश रचता रहा था ।

            ऐसा अक्सर होता था कि रात जब नींद नहीं आती , मैं हत्या की नई- नई तरकीबें सोचता रहता । उन दिनों हर गई शाम थोड़ी बूँदा-बाँदी हो ही जाती थी- आकाश साफ और शहर डेढ़ ईंच कीचड़ में सन जाता । फिर चुल्हे में बची राख जितनी गर्म और उतनी ही काली एक रात बिल्ली के पाँव से खिसक आती । सीलन भरे मेरे तकिये के पास , रात के पासंग के मानिंद एक हत्या की लगभग सत्तइस-अट्ठाइस तरकीबें जमा हो जातीं-जिन्हें मैं कहीं भी, कभी भी दुहरा सकता था । फर्ज करें जूता का फीता बाँधते घड़ी मै मन ही मन तीन तरकीबें दुहरा लेता । ब्रश करते घड़ी आठ । नहाने के लिए , नहाने से पहले बाल्टी के पानी में हाथ डुबोए ग्यारह-बारह तरकीबें । साइकिल चलाते या पैदल बाजार जाते भी मैं मन ही मन दुहराता रहता-तब मैंने गौर किया और बहुत बार बहुतों ने टोका भी कि मै रास्ते में चलते चलते बड़बड़ाता हूँ और मुस्कुराता भी हूँ । एक आध बार कुछ ने मेरा पीछा भी किया और मेरे पीछे जोर-जोर से बेशर्मी वाली हँसी भी हँसे । तब से बजार और भीड़-भाड़ वाली जगह से घबराहट होती है ।

दरअसल ये बड़बड़ाने वाली आदत मेरी माँ में थी । जिन दिनो बड़े भाई साहब कमाने गए थे और तीन सालों तक उनका कोई अता पता नहीं चला था । माँ उन्हीं दिनो आँखें खोले बैठी रहती और उसके होठों से हमेशा फुसफुसाहट होते रहते-पूछने पर कहती कि भगवान जी से बातें कर रही हूँ , तुम लोग सो जाओ । मै और दीदी वहीं सो जाते और धीरे-धीरे पूरा कमरा अंधेरे फुसफुसाहटों से भर जाता । वे फुसफुसाहटें देर रात को , जब हम पूरी नींद में होते , इतनी अधिक हो जाती कि हम उन्हें अपने सपनों में महसूस करते । इतनी तेज , इतनी कि हम जग जाते , जब माँ दहाड़ें मार कर चिल्लाना शुरू करती । घर के सभी लोग जग जाते और बुआ के जोर जोर से कल चलाने की आवाज सुनाई पड़ती । बाबा दरवाजे के सामने बैठ कर रोते और माँ को कमरे से निकाल कर ,  आंगन में अमरुद के नीचे लेटा दिया जाता । माँ के शरीर पर अस्त-व्यस्त कपड़े और खुले बाल- बुआ उस पर घड़ो ठंडा पानी उढ़ेल देती । माँ की साँस फूलने लगती । वह जैसे समन्दर में डूब रही हो , जोर जोर से हाँफते हुए बाहर निकलती और अंतत: अचेत होकर वहीं चितान लेट जाती । अचेतन में उसकी साँसे और जोर जोर से फूलती , जो उस के सीने पर उतरती-चढ़ती साफ साफ दिखती थी । उस रात माँ को खो देने का भय और दुबारा जोरों की भूख लगती । ऐसी भूख जिसे मैनें अपनी बेरोजगारी के दिनो में भी दुबारा महसूस नहीं किया  वो मरोड़ फिर कभी नहीं उठी ।

उस रात की सुबह बड़ी बेशर्म होती , धूप जल्दी चढ़ आती थी । बुआ चाय बनाती और सूजे मुँह माँ चाय पीती । उस सुबह माँ से हम आँखें नहीं मिला पाते । उस सुबह कोई किसी पर गुस्सा नहीं करता । हमलोग बाहर खेलने नहीं जाते । माँ बहुत देर बाद हम से खाना  खाने को पूछती , जब हम खा चुके होते थे । ठेठ दोपहर माँ एक बार मुस्कुराती और हमें सीने से लगा कर कहती कि मै नहीं मरूंगी । और, हम रो पड़ते ।

काश मेरी तरह , एक धक धक सफेद कागज पर पेंसिल की लकीर जितनी सपाट-सी उस दोपहर में दीदी की रुलाई को आप भी महसूस कर पाते । उन दिनों के पुराने अखबारों को आप निकालें तो पायेंगे कि वो चुपचाप बीत जाने वाली एक दूपहर थी । अखबारों में बच्चों की कहानी कविताओं के अलावे कोई घटना नहीं घटती थी ।

           बचपन की वैसी कई दोपहरें जो दलान में बैठ कर हमने अपनी माँ के साथ काटे थे- हमे जुबानी याद थी।

उन्हीं दिनों सूखी नहर सी माँ की  आँखें दूर तक किसी को देखतीं और देर तक पहचानती थी । उसकी मस्तिष्क की सारी ऊर्जा लोगों के पहचान में जाया होती थी । बचपन से अब तक के सारे लोगों को वो उँगलियों के पोरों पर दुहराती रहती ।

            छुट्टी वाली गरमी की एक दोपहर में माँ ओसारे में बैठी थी । मै,दीदी और चाचा का लड़का पिंकू वहीं खेल रहे थे । एक साँवले रंग के पैंट कुर्ते वाले आदमी ने बाबूजी का नाम पूछा और माँ के हाथ एक चिट्ठी पकड़ा गया । वह हमारा डाकिया नहीं था- अपने डाकिये की कई निशानी हमें जबानी याद थी । पर   उस साँवले रंग के पैंट-कुर्ते वाले आदमी का चेहरा-मोहरा इतना साधारण था कि वह दुबारा कुछ और बन कर हमारे सामने आता तो हम उसे नहीं पहचान पाते । वह आदमी पैदल ही आया था,  पैदल ही बिला गया । हमारे लिये भैया की मृत्यु की वही तिथि थी । माँ की जेवरातों से कीमती और पिता की बेरोजगारी से बड़ी बीमारी से उनकी मौत , एक सरकारी अस्पताल में हम सबको इकट्ठे याद करते हुए हुई थी ।

इस चिट्ठी वाली दोपहर से लेकर मरने की एक निश्चित भोर तक तक माँ आँखें खोले बैठी रहती । उसकी आखों मे हमेशा दिन रहता । अनिद्रा के कारण उसका मुँह हमेशा सूजा रहता और आँखों के कोरों के पास गाल भींगे रहते । उसी दरम्यान वह चीजों को भुलने के साथ-साथ अपनी फुसफुसाहट वाली आदत भी भूल रही थी । और तभी अचानक यह बीमारी मुझमे आ गई थी ।

            अपनी इस बीमारी को ठीक से याद करना चाहूँ तो माँ के घर में टंगा वो तारीख वाला कैलेण्डर याद आता है । भैया के अचानक गायब हो जाने तक से माँ के मरने तक हमारे पूरे घर में वही एक कैलेण्डर था । उन सात सालों के ऊहा पोहों  के बीच वही एक कैलेण्डर जिसमे अलग-अलग सालों के महीने और दिन दर्ज थे । यही गड़बड़-झाला है कि हमारे घर और हमारे बचपन के वो सात साल के एक-एक दिन झाऊ के जंगल की तरह एक-दूजे में गुथे-बिथे से हैं । खाली गिलास-सा कोई अकेला दिन जब हम याद करने की तरह निकालते तब बाकी के दिन भी उससे लगे-फदे इस तरह झनझनाहट के साथ हमारे आँगन के फर्श पर गिरते कि पूरा घर जग जाता । घर के सभी लोग आंगन में आ कर एक-एक दिन को उठाते और बीना किसी को डाँटे चुपचाप एकोराह करते-  इस हिदायत के साथ कि बेमतलब कोई भी इन्हें न छुआ करे । यह अक्सर खाकर सोने के बाद गहरे रात का समय होता था ।

            इन सात सालों के बीच सिर्फ माँ के घर में टंगे उस एक ही कैलेण्डर का फायदा ये था कि हम उस बीच के तमाम घटनाओं को अलग-अलग सालों में न खोजकर , एक ही कैलेण्डर में , एक मुस्त पकड़ लेते । इस तरह किसी भी साल की घटना पिछले महीने की लगती । तब हम आस पास जी रहे थे सिर्फ जनवरी से दिसम्बर तक ।

            ये चलते-चलते बड़बड़ाने वाली आदत को बाद में माधुरी ने भी टोका था । नीम के पत्ते जितनी छोटी और कड़वी एक तात्कालिक शर्म तो आई थी पर क्या कहें कि ये आदत मेरे अकेले का घोर मनोरंजन था ।